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________________ आदमी नहीं था। उनकी बातें मैं सुनने जाता था—यही देखने कि आदमी कितनी दूर की बातें कह सकता है। वे सदा कहते थे कि यह संसार तो ऐसा है जैसे रस्सी में सांप दिखाई पड़ जाये।। ___यह मैंने इतनी बार सुना...। करीब-करीब वे रोज ही कहते थेः रज्जू में सर्प दिखाई पड़ जाये, ऐसा। सुन-सुन कर मुझे एक खयाल आया। मैंने कहा, इन पर प्रयोग करना चाहिए। वे रोज मेरे मकान के सामने से ही सांझ को निकलते थे। तो एक रस्सी में पतला धागा बांध कर रस्सी को दूसरी तरफ सड़क की नाली में डाल कर मैं एक खाट के पीछे मकान में जा कर छिप कर बैठ गया। और धागा हाथ में रख लिया। जब वे आ रहे थे वहां से, तो मैंने वह धागा खींचा। रस्सी नाली से बाहर निकली। वे तो ऐसे भागे कि कोई पांच-सात कदम पर उनकी लुंगी फंस गयी और गिर पड़े। इतना मैंने भी न सोचा था। और मैं पकड़ भी लिया गया, क्योंकि सारी भीड़ इकट्ठी हो गयी। और मेरे पिता ने मुझसे पूछा, यह तुमने किया क्यों? बूढ़े आदमी हैं, हाथ-पैर टूट जायें, कुछ हो जाये; यह कोई मजाक की बात है? मैंने कहा. मैंने किया भी नहीं. इन्होंने सझाव दिलवाया। ये रोज कहे जाते हैं। आखिर एक सीमा होती है सुनने की भी। मैं सुनते-सुनते थक गया तो मैंने यह सोचा कि कम से कम इनको तो न दिखाई पड़ेगा। इनको दिखाई पड़ गया। ये भूल ही गये। - रस्सी में सांप दिखाई पड़ता है-भय के कारण। वह भय का प्रक्षेपण है। जो हमें दिखाई पड़ रहा है वह हमारा प्रक्षेपण है। जब अष्टावक्र जैसे मनीषी कहते हैं कि संसार भ्रमवत है, माया है, तो तुम यह मत समझना कि वे यह कह रहे हैं कि यह झूठ है। वे इतना ही कह रहे हैं : जैसा है वैसा तुमने नहीं जाना; कुछ का कुछ जान लिया; कुछ का कुछ दिखाई पड़ गया। क्योंकि भय है, लोभ है, मोह है, क्रोध है, ईर्ष्या है, जलन है। हजार तुम्हारे भीतर परदे हैं; उन परदों में से सब विकृत हो जाता है। कुछ सीधा-सीधा दिखाई नहीं पड़ता। आंख साफ-सुथरी नहीं है। बहुत धुएं से भरी है। भवोऽयं भावनामात्रो न किंचित्परमार्थतः। यह संसार, जो तुम जानते हो, तुम्हारे पास है, यह सिर्फ तुम्हारी भावना है। किसी को पत्नी मान लिया है, किसी को बेटा मान लिया है; किसी को अपना, किसी को शत्रु, किसी को मित्र। सब मान्यता है। कौन तुम्हारी पत्नी? बीस-पच्चीस वर्ष तक एक-दूसरे से अपरिचित जीये; फिर एक दिन किसी पंडित ने बिठा दी कुंडली तुम्हारी दोनों की। ये पंडित अपनी ही कुंडली बिठा नहीं पाये हैं। इनके और इनकी पत्नी के जरा दर्शन तो करो जा कर कि क्या चल रहा है। और ये हजारों की कुंडली बिठाये जा रहे हैं। उस आधार पर विवाह हो गया। हवन-यज्ञ करके सात चक्कर लगवा दिये। एक सज्जन मेरे पास आये और उन्होंने कहा कि बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। अब विवाह हो गया, भांवर पड़ गयीं, सात चक्कर लग गये; अब बनती तो बिलकुल नहीं है। ऐसा कष्ट झेल रहे हैं दोनों कि जिसका कोई हिसाब नहीं है। तो मैंने कहा कि तुम उल्टे चक्कर क्यों नहीं लगा लेते सात? खतम करो मामला। यह चक्कर ही का मामला है न? ऐसे लगाये थे, अब वैसे लगा लो। गांठ बंध गयी, गांठ खोल लो। करना क्या है? इसमें इतने परेशान क्यों हुए जा रहे हो? दो जीवन क्यों खराब किये ले रहे हो? नहीं, वे कहते हैं, अजी, यह कैसे हो सकता है? अब जब बंध सकते हैं सात फेरे डालने से, तो खुल क्यों नहीं सकते; मेरी समझ में नहीं आता। परमात्मा हमारा स्वभावसिद्ध अधिकार है। 273. 273
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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