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तुम्हारे जीवन के जो राग, संबंध, आसक्तियां, द्वेष हैं, उन सब का जो जाल है, उसको ही संसार कह रहे हैं।
'यह संसार भावनामात्र है । परमार्थतः यह कुछ भी नहीं है। भावरूप, अभावरूप पदार्थों में स्थित स्वभाव का अभाव नहीं है।'
बस, एक चीज यहां सच है । और वह है तुम्हारा साक्षी भाव, तुम्हारा स्वभाव । कुछ है; कुछ नहीं भी है। कुछ नहीं को तुमने है जैसा मान लिया है; कुछ 'है' को तुमने 'नहीं है' जैसा मान लिया है। यह सब तो ठीक है, लेकिन इन सब के बीच अगर एक ही कोई चीज सत्य है, पारमार्थिक रूप से, आत्यंतिक रूप सत्य है, सत्य थी, सत्य है, और सत्य रहेगी, वह तुम्हारा साक्षी भाव है। इसलिए उसको ही खोज लो । बाकी उलझाव में कुछ भी बहुत अर्थ नहीं है। दौड़-धूप होगी बहुत, पहुंचोगे कहीं भी नहीं। हाथ कुछ भी न लगेगा । मुट्ठी खाली की खाली रह जाएगी।
देखते हो, दुनिया में बड़ा अदभुत होता है। बच्चे आते तो बंधी मुट्ठी आते हैं; जाते तो खुली मुट्ठी चले जाते हैं। ऐसा लगता है आदमी कुछ लेकर आता है और गंवा कर लौट जाता है। बच्चों में तो कुछ मालूम भी होता है कि कुछ होगा आनंद, कुछ पुलक, कोई रस; बूढ़े बिलकुल सूख जाते हैं । होना तो उल्टा चाहिए। कुछ और जान कर लौटते । यह संसार तो एक पाठशाला थी; कुछ सीख कर लौटते, कुछ और होश से भर कर लौटते । लेकिन और बेहोश हो कर लौट जाते हैं।
'आत्मा का स्वभाव दूर नहीं है । वह समीप या परिच्छिन्न भी नहीं है। वह निर्विकल्प, निरायास, निर्विकार और निरंजन है।'
न दूरं न च संकोचाल्लब्धमेवात्मनः पदम्।
न तो आत्मा दूर है और न पास है; क्योंकि आत्मा भीतर है। दूर और पास तो परायी चीज होती है । वस्तुतः जिसको हम पास कहते हैं वह भी तो दूर है। थोड़ी कम दूर है, लेकिन दूर तो है ही । कोई मेरे से पांच फीट दूर बैठा, कोई दस फीट दूर बैठा, कोई पंद्रह फीट, कोई हजार फीट, कोई हजार मील, कोई करोड़ मील, मगर दूर तो सभी हैं । जिसको हम पास कहते हैं वह भी तो दूर ही है। पास भी तो दूर को ही नापने का ढंग हुआ। पास होकर भी कौन पास हो पाता है ? ज्ञानी तो कहते हैं, यह देह भी दूर है। बहुत पास है, पर इससे क्या फर्क पड़ता है? सिर्फ चैतन्य, तुम्हारा साक्षी - भाव, तुम्हारे भीतर जलती बोध की अग्नि, वही मात्र तुम हो। वह न तो दूर है न पास।
न दूरं न च संकोचात् लब्धं एव आत्मनः पदम्।
वह जो आत्मा है, वह जो स्वभाव है आत्मा का या आत्मा में छिपा जो परमात्मा है, न दूर न पास, न प्रगट न अप्रगट है।
निर्विकल्पं निरायासं निर्विकारं निरंजनम् ।
वह निर्विकल्प है। विचार खो जायें, अभी तुम जान लो । निर्विकल्प हो जाओ, अभी तुम जान लो। निरायास, उसको जानने के लिए आयास भी नहीं करना, प्रयास भी नहीं करना, प्रयत्न भी नहीं करना है। निरायास, वह तो मिला ही हुआ है। तुमने उसे कभी गंवाया नहीं । इसलिए तुम जरा जाग जाओ तो पता चल जाये कि खजाना सदा से पड़ा है। निर्विकार । और वहां कोई विकार कभी गये नहीं । लाख तुम्हारे साधु-संन्यासी तुम्हें समझाएं कि पापी हो; भूल में मत पड़ना । और लाख तुम्हें कोई
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4