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________________ बेटे पर नाराज हो रहे हो। कोई तुमसे पूछता है : मत हो नाराज । तुम कहते हो : नाराज न होंगे तो यह सुधरेगा कैसे ? लेकिन कारण के भीतर कारण होंगे। जरा गौर से देखना, इसको सुधारने में सच में तुम उत्सुक हो ? या कि तुमने कुछ कहा था और उसने माना नहीं, इसलिए अहंकार को चोट लग गयी। अब तुम अहंकार का बदला ले रहे हो, मगर छिपा कर ले रहे हो, आड़ में ले रहे हो। कहीं ऐसा तो नहीं है कि सुधारने से कोई संबंध ही नहीं है। दफ्तर में मालिक तुम पर नाराज हो गया था और मालिक से तुम नाराज न हो सके; क्योंकि वह जरा महंगा सौदा था । क्रोध भरा चला आया; अब घर में कमजोर बच्चे को देख कर निकल रहा है। जो मालिक पर निकलना था वह बच्चे पर निकल रहा है । जरा गौर से देखना, कारण के भीतर कारण है। मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन रात दो बजे सड़क से निकल रहा है। एक पुलिस वाले ने उसे पकड़ा और कहा कि महानुभाव, रात के दो बजे तुम कहां जा रहे हो? तो उसने कहा, भाषण सुनने । कमाल है, उस कॉन्सटेबुल ने कहा, रात के दो बजे भाषण सुनने ? कौन बैठा है भाषण देने को यहां दो बजे रात ? होश की बातें करो! पी-पा कर तो नहीं चल रहे हो ? नसरुद्दीन ने कहा: आपको मेरी पत्नी का पता नहीं है हुजूर, दो बजे क्या, पूरी रात बैठी रहेगी, जब तक मैं न जाऊं; जब तक मुझे भाषण न सुनाये, तब तक वह सो नहीं सकती। भाषण सुनने जा रहा हूं। कारण के भीतर कारण है । अपने-अपने कारण हैं। तुम जरा गौर से देखना । तुम जीवन की पर्त-दर-पर्त में ऐसा पाओगे। 'यह संसार भावना मात्र है।' भवोऽयं भावनामात्रो न किंचित्परमार्थतः । 'इसकी कोई पारमार्थिक सत्ता नहीं है।' तुमने जो संसार अब तक देखा है वह तुम्हारी भावनाओं का ही संसार है। तुमने वह तो देखा ही नहीं, जो है। जिसे कृष्णमूर्ति कहते हैं, दैट व्हिच इज, वह जो है, वह तो तुमने देखा ही नहीं । तुमने वही देख लिया है जो तुम देखना चाहते थे। तुमने वही देख लिया है जो तुम देख सकते थे अपने अंधेपन में। तुमने वही देख लिया है जो तुम देख सकते थे अपनी बेहोशी में। तुमने वही देख लिया है जो तुम देख सकते थे अपनी विक्षिप्तता में। तुमने कुछ का कुछ देख लिया है। देखा तुमने, रास्ते पर रस्सी पड़ी है, तुमने सांप देख लिया ! भागे, हांफने लगे, कि गिर पड़े। मेरे गांव में एक कबीरपंथी साधु थे। अब तो चल बसे। उनका व्याख्यान सुनने मैं सदा जाता था। वे व्याख्यान में कुछ ऐसी बातें कहते थे जिनका उनके जीवन से कोई तालमेल नहीं था । मैं यही सुनने जाता था कि आदमी कितना गजब कर सकता है। वे कहते, संसार माया है, और एक-एक पैसे पर उनकी पकड़ थी। अब वे कहते थे कि यहां रखा क्या है ? यह सब तो जैसे रेत में बच्चे मकान बनाते हैं। और उनको मैं देखता था कि वे चौबीस घंटे छाता लिये भर दुपहरी में खड़े हैं और आश्रम बनवा रहे हैं। सोचता, बड़े मजे की बात है। भर दुपहरी में खड़े रहते और पसीना चूता रहता और ये रेत के घर बना रहे हैं जो गिर जाने वाले हैं। मामला क्या है ? इतने परेशान क्यों हो रहे हैं? कहते, पैसे-लत्ते में तो कुछ भी नहीं है। लेकिन एक-एक पैसे पर उनकी पकड़ ऐसी थी कि गांव में उनसे ज्यादा कंजूस 272 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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