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देखा तुमने, वर्षा होती है पहाड़ पर, पहाड़ खाली का खाली रह जाता है; क्योंकि पहले से ही भरा है। फिर वही वर्षा नीचे आती है, गड्ढों में भर जाती है और झीलें बन जाती हैं, मानसरोवर निर्मित हो जाते हैं। क्यों? झील भर जाती है, क्योंकि झील खाली थी। जो खाली है वह भर जाएगा; जो भरा है वह खाली रह जाएगा।
तो अगर तुम अपने अहंकार से बहुत भरे हो कि मैं कर्ता, मैं कर्ता, मैं धर्ता, मैं यह, मैं वह, अगर तुम्हारे भीतर ये सब बातें भरी हैं, तो तुम खाली रह जाओगे। परमात्मा बरसता है, लेकिन तुम झील न बन पाओगे। तुम खाली हो तो उसकी अमृतधारा तुम्हें भर दे। और तभी है शांति।
कुतः प्रशमपीयूषधारा सारमृते सुखम्।
उसकी अमृतधारा की वर्षा के बिना किसको शांति मिलती है! शांति तुम्हारे करने का परिणाम नहीं है; तुम्हारे अकर्ता हो जाने की सहज दशा है।
'यह संसार भावना मात्र है। परमार्थतः यह कुछ भी नहीं है। भावरूप और अभावरूप पदार्थों में स्थित स्वभाव का अभाव नहीं।'
'यह संसार भावना मात्र है...!'
इस संसार में तुम जो देख रहे हो, वैसा नहीं है। क्योंकि तुम्हारे पास देखने वाली कोरी आंख नहीं है। तुम्हारी आंख किन्हीं भावनाओं से भरी है। तो तुम्हारी भावना प्रक्षेपित हो जाती है। संसार के परदे पर तुम वही देख लेते हो जो तुम देखना चाहते हो, या देखने को आतुर हो। इसे थोड़ा समझने की कोशिश करना। ___तुम वही नहीं देखते, जो है। जो है, उसे तो वही देखता है जिसके भीतर बोधोदय हुआ, जिसके भीतर परमात्मा की किरण उतरी, जो जागा। तुम तो अभी वही देखते हो जो देखना चाहते हो।
ऐसा समझो। एक आदमी भूखा सो गया, तो रात सपना देखता है कि राजमहल में भोजन पर आमंत्रित हुआ है। न कोई राजमहल है, न कोई भोजन है। लेकिन भूखा आदमी भोजन के सपने देखता है। देखेगा। तुमने अगर कभी उपवास किया हो तो तुम्हें पता होगा; न किया हो तो करके देखना। महत्वपूर्ण अनुभव है; उपवास का नहीं, रात सपने में भोजन का। जो भी तुम्हारे जीवन में वंचित रह गया है और वासना बनी रह गयी है, तुम रात सपने में उसे दोहरा लेते हो।
लेकिन तुम्हारा दिन भी तुम्हारी रात से बहुत भिन्न नहीं है। होगा भी नहीं। तुम्हारी रात है; तुम्हारा दिन है। वही मन रात में है; वही मन दिन में है। दिन में जरा तुम होशियारी करते हो; रात में बिलकुल होशियारी छोड़ देते हो। मगर दोनों में कोई गुणात्मक भेद नहीं है; परिमाण का भेद है। तुम वही देख लेते हो, जो तुम देखना चाहते हो। ____ मैं एक मित्र के साथ गंगा के किनारे बैठा था। अचानक मित्र उठा और उसने कहा कि रुकें, मुझसे न रहा जायेगा। यह स्त्री जो तट के किनारे बाल संवार रही है, उसे मैं देख कर आऊं। सुंदर मालूम होती है। मैंने कहा, देख आओ; क्योंकि भाव उठा है तो अब रुकना ठीक नहीं। वह वहां गया वहां से सिर पीटता लौटा। मैंने कहा, मामला क्या है? वह कहने लगा, वह तो एक साधु है। पीठ थी हमारी तरफ, साधु महाराज के बड़े बाल थे, सुंदर देह थी। वह सिर पीटता लौट आया। मैंने कहा, क्या मामला हुआ? क्या स्त्री कुरूप निकली? उसने कहा, स्त्री ही न निकली। कुरूप भी निकलती तो भी
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अष्टावक्र: महागीता भाग--4