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________________ कर्तव्यदुःखमार्तण्डज्वालादग्धान्तरात्मनः। कुतः प्रशमपीयूषधारासारमृते सुखम्।। 'कर्तव्य से पैदा हुए दुखरूप सूर्य के ताप से जला है अंतर्मन जिसका!' खयाल करना, तुम जो भी धन इकट्ठा करते हो, इसीलिए इकट्ठा करते हो कि तुम सोचते हो कि तुम इकट्ठा कर सकते हो, तुम कर्ता हो। जो है वह मिला है; उसे इकट्ठा करने की जरूरत ही नहीं है। परमात्मा मिला है; उसे अर्जित नहीं करना है। वह तुम्हारा स्वभाव है। सच्चिदानंद तुम हो। लेकिन आदमी सोचता है, अर्जित करना होगा, कमाई करनी होगी, सुख के लिए इंतजाम करना होगा, तो आदमी कर्ता बन जाता है। वह कहता है, ऐसा करूंगा, ऐसा करूंगा, इतना-इतना कर लूंगा-फिर तुम कर्ता बने कि तुम जले। यह वचन सुनोः 'कर्तव्य से पैदा हुए दुखरूप सूर्य के ताप से जला है अंतर्मन जिसका।' जो कर्ता के कारण ही दग्ध हुआ जा रहा है कि मुझे करना है। यह इतना विराट विश्व चल रहा है; तुम कभी आंख खोल कर नहीं देखते कि कोई कर्ता नहीं दिखाई पड़ता और सब हो रहा है! जीसस ने अपने शिष्यों को कहा है : देखो खेत में लगे फूलों को। लिली के ये छोटे-छोटे फूल न तो श्रम करते हैं, न अर्जन करते हैं, फिर भी कैसे सुंदर हैं! कैसे मनमोहक! सम्राट सोलोमन भी अपनी सारी साज-सज्जा में इतना सुंदर न था। क्या अर्थ हुआ इसका? इसका अर्थ हुआ, जरा गौर से देखो, इतना विराट अस्तित्व चला जा रहा है, चल रहा है। तो जो इस विराट को चला रहा है, वही मुझको भी चला लेगा। ऐसा भाव जिसे आ गया, नमस्कार हो गया। ऐसा भाव जिसे आ गया, उसने अपनी सीमा छोड़ दी; असीम के साथ गठबंधन बांध लिया। उसने कहा : कर्ता है परमेश्वर, मैं कर्ता नहीं। उसने अपने मैं का जो केंद्र था, उसे विसर्जित कर दिया। उसने कहाः तूने ही पैदा किया; तू ही श्वास ले रहा है; तू ही भोजन पचाता है; तू ही भोजन को खून बनाता है; तू ही जवान करता है; तू ही बूढ़ा करता है; एक दिन तू ही उठा ले जाएगा। जब सभी तू कर रहा है तो बीच में हम कर्ता क्यों बनें? तू सभी कर! हम सिर्फ होने देंगे। हम कर्ता न रहेंगे। हम केवल उपकरण हो जाएंगे—निमित्त मात्र। तेरी धारा हमसे बहे; जैसे बांसुरीवादक की धारा बहती है बांस की पोंगरी से। बांस की पोंगरी सिर्फ खाली स्थान है जहां से स्वर बह सकते हैं। हम बांस की पोंगरी होंगे। कबीर ने कहा है यही कि मैं बास की पोंगरी हूं। तुम गाओ तो गीत बहे; तुम न गाओ तो गीत चुप रहे। मैं न गाऊंगा। मैं न गुनगुनाऊंगा। मैं बीच में न आऊंगा। ऐसी जो भावदशा है, वही नमस्कार है, वही नमन है। वही समर्पण है। कहो श्रद्धा, कहो प्रार्थना, भक्ति, आस्तिकता, जो भी कहना हो। लेकिन सार-सूत्र की बात इतनी है कि कर्ता परमात्मा है, हम कर्ता नहीं हैं। 'कर्तव्य से पैदा हुए दुखरूप सूर्य से जला है जिसका अंतर्मन, ऐसे पुरुष को शांतिरूपी अमृतधारा की वर्षा के बिना सुख कहां है?' ___ नहीं, तुम्हारे कमाये सुख न कमाया जा सकेगा। शांतिरूपी वर्षा तुम्हारे ऊपर बरसे। तुम्हारी कमाई नहीं है शांति। तुम केवल द्वार दे दो और प्रभु बरसे, तुम्हारे भीतर भर जाये। परमात्मा हमारा स्वभावसिद्ध अधिकार है। 269
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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