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________________ यह सारा जगत अर्थशास्त्रियों की बिना सलाह के चल रहा है, सिर्फ आदमी को छोड़ कर । और आदमी अर्थशास्त्रियों की सलाह के कारण बड़े अनर्थ में पड़ गया है। उसके जीवन से सारा अर्थ खो गया है। बस एक ही बात वह पूछता है: फायदा ? स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा । किसी ने पूछा तुलसी को क्यों गायी तुमने राम की कथा ? तो कहाः स्वांतः सुखाय। कुछ पाने के लिए नहीं; कुछ राम को रिझाने के लिए भी नहीं। वे तो रीझे ही हुए हैं। कोई रिश्वत भी नहीं दी उनको कि तुम्हारी स्तुति गायेंगे तो जरा मुझे स्वर्ग में अच्छी, ठीक़-सी जगह दे देना। नहीं, किसीलिए नहीं । गाने में मजा आया; स्वांतः सुखाय, सुख आया। तुम खयाल करना, जब भी तुम कोई काम बिना कुछ पाने की आकांक्षा के करते हो, तभी सुख आता है। और जहां भी कुछ पाने की आकांक्षा है, वहीं दुख है, वहीं तनाव है। धन से तो सुख मिल नहीं सकता, क्योंकि धन का मतलब ही यह है कि धन साधन है और सुख बाद में आएगा। रुपया हाथ में रखने से तो सुख किसी को भी आता नहीं । कितने ही रुपये के ढेर लग जायें तो भी सुख नहीं आता, सुख मिलेगा धन के इकट्ठे होने से, पहले हम धन इकट्ठा कर लें, फिर सुख मिलेगा – ऐसे लोग तैयारियां ही करते रहते हैं और तीर्थयात्रा पर कभी नहीं निकलते। टाइम-टेबिल ही देखते रहते हैं कि जाना है; जाते नहीं। क्योंकि तैयारी ही कभी पूरी नहीं हो पाती तो जायें कैसे ! तुम चकित होओगे, इस जगत के बड़े से बड़े धनी लोग भी निर्धन से भी ज्यादा निर्धन होते हैं। उनका बाहर का धन तुम देखोगे तो पाओगे बहुत धनी हैं, उनके भीतर जरा झांकोगे तो पाओगे राख ही राख है। वहाँ अंगार भी नहीं है। वहां जरा भी ज्योति नहीं जलती । मुर्दा ही मुर्दा । धनी आदमी को जीवित तुम मुश्किल से पाओगे। कारण ? क्योंकि जीवन ही बेच बेच कर 'धन इकट्ठा कर लिया। जीवन की सारी संवेदनाएं, जीवन की सारी क्षमताएं, जीवन का सारा काव्य तो बेच डाला और धन इकट्ठा कर लिया — इस आशा में कि फिर कुछ मिलेगा। इसे मैं तुम्हें कह दूं : इस क्षण में है सुख । और अगर तुमने अगले क्षण में सोचा तो तुम धनलोलुप हो। इसलिए मैं तुमसे यह भी नहीं कहता कि सिर्फ धनी ही पागल है; जो सोच रहा है स्वर्ग में मिलेगा, वह भी उतना ही पागल है। जो सोच रहा है परमात्मा को पा लूंगा, फिर सुख मिलेगा, वह भी पागल है। क्योंकि सबका तर्क एक ही है। तर्क यह है कि कुछ होगा, मिलेगा, फिर सुख । सुख जैसे परिणाम में आएगा। नहीं, सुख या तो अभी या कभी नहीं । तुम यहां बैठे हो। अगर तुम सोच रहे हो कि मुझे सुनकर तुम समझ लोगे, समझ में सारे निचोड़ लोगे, फिर अपने जीवन का वैसा व्यवस्थापन करोगे, तब तुम सुख को पाओगे - तुम चूक गये। तब यही तुमने धन बना लिया। फिर यह भी धन हो गया। फिर यहां भी लोभ आ गया। लोग आते हैं। एक डाक्टर हैं। उनको मैंने कहा कि तुम बैठे-बैठे नोट क्यों लेते रहते हो ? उन्होंने कहा कि नोट इसलिए लेता हूं कि बाद में काम पड़ेंगे। मैंने कहा, हद हो गयी। मैं समझा-समझा परेशान हुआ जाता हूं कि बाद की फिक्र मत करो। बाद काम पड़ेंगे ! अभी मैं तुम्हारे सामने कुछ मौजूद कर रहा हूं, तुम सुख ले लो। तुम सुखी हो जाओ। सुखी भवेत। अभी और यहीं । तुम यह क्षण जो सुख का बह रहा है मेरे और तुम्हारे बीच, इसे नोट ले कर खराब कर रहे हो। तुम धन इकट्ठा कर रहे हो फिर । नोट यानी धन। फिर पीछे काम पड़ेंगे। फिर देख लेंगे उल्टा कर कापी, फिर संभाल कर रख लेंगे । परमात्मा हमारा स्वभावसिद्ध अधिकार हैं 267
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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