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________________ थी कि जब तक वह मंदिर में जा कर नमस्कार न कर ले महावीर को, तब तक भोजन न करेगी। बड़ी झंझट खड़ी होती। सभी गांव में जैन मंदिर नहीं भी हैं। एक गांव में मैं गया तो मैंने देखा जैन मंदिर है, मैं भागा हुआ आया। मैंने उससे कहा, आज बड़े शुभ का समय है, तू जल्दी जा, मंदिर है। वह गयी वहां। वहां से उदास लौटी। उसने कहा कि वह हमारा मंदिर नहीं है; वह श्वेतांबर जैन मंदिर है। दिगंबर जैन मंदिर चाहिए। मैं तो नग्न महावीर को नमस्कार करती हूं। ये कोई महावीर, सजे बजे, ये महावीर नहीं हैं! महावीर तो वीतराग रूप हों तो ही । महावीर में भी फर्क है - श्वेतांबर का महावीर, दिगंबर का महावीर । जबलपुर में मैं वर्षों तक था। वहां गणेशोत्सव पर गणेश का जुलूस निकलता था। तो वहां नियम कि ब्राह्मण का गणेश, ब्राह्मण टोले का गणेश पहले, फिर दूसरा टोला; ऐसे जैसा कि वर्ण-व्यवस्था से होना चाहिए। एक बार ऐसा हुआ कि ब्राह्मणों के टोले के गणेश के आने में थोड़ी देर हो गयी और चमारों के गणेश पहले पहुंच गये। तो ब्राह्मणों ने तो बर्दाश्त नहीं किया। उन्होंने तो जुलूस रुकवा दिया। उन्होंने कहा, , हटाओ चमारों के गणेश को। चमारों के गणेश! हद हो गयी! आगे चले जा रहे हैं चमारों गणेश! जैसे गणेश भी चमार हो गये। सत्संग का परिणाम तो होता ही है । चमारों की दोस्ती करोगे, चमार हो जाओगे । हटवा दिया। दंगा-फसाद की नौबत आ गयी। जब तक हटवा न दिया पीछे ब्राह्मणों ने गणेश को, अपने गणेश को आगे न कर लिया, तब तक जुलूस आगे न बढ़ सका। • ईश्वर की तुम्हारी धारणा भी बड़ी संकीर्ण है। तुम नमस्कार करते हो तो उसमें भी हिसाब रखते हो। नमस्कार का तो अर्थ ही होता है बेहिसाब । यह जो चारों तरफ विराट मौजूद है, इसमें झुको, इसमें नदी की तरह लीन हो जाओ; जैसे नदी सागर में खो जाती है। तस्मै सुखैकरूपाय...। उस सुख रूप में झुकता हूं। नमः शांताय तेजसे । उस तेजस्वी में झुकता हूं। उस शांति के सागर में झुकता हूं। बुद्ध के पास लोग आते थे तो उनके चरणों में झुक कर कहते : बुद्धं शरणं गच्छामि । किसी ने बुद्ध से पूछा कि आप तो कहते हैं कि किसी के चरण में मत झुको, लेकिन लोग आपके चरणों में झुकते हैं और कहते हैं : बुद्धं शरणं गच्छामि। आप रोकते नहीं ? तो बुद्ध ने कहा, मैं रोकने वाला कौन? वे मेरी शरण थोड़े ही झुकते हैं, बुद्ध की शरण झुकते हैं। बुद्धत्व कुछ मुझमें सीमित थोड़े ही है। बुद्धत्व यानी जागरण की दशा । मुझसे पहले हजारों बुद्ध हुए हैं, मेरे बाद हजारों बुद्ध होंगे। जो आज बुद्ध नहीं हैं; वे भी बुद्धत्व को तो भीतर संभाले हुए हैं। किसी दिन प्रगट होगा। अभी बीज हैं, कभी वृक्ष बनेंगे! अभी कली हैं; कभी फूल बनेंगे। अभी छुपे हैं; कभी प्रगट हो जाएंगे। बुद्धं शरणं गच्छामि। वे बुद्ध की शरण जाते हैं, उसका अर्थ यह नहीं है कि मेरी शरण जाते हैं। मैं कौन हूं? अगर मेरी शरण जाते हैं तो गलत जाते हैं। अगर बुद्धत्व की शरण जाते हैं तो ठीक जाते हैं। मैं रोकने वाला कौन ? मैं बीच में आने वाला कौन ? नमन तुम्हारा उसके प्रति हो - प्रकाशरूप, शांतिरूप, सुखरूप - जिसके उदय से सारा संसार भ्रममात्र हो जाता है। परमात्मा हमारा स्वभावसिद्ध अधिकार है 261 · ·
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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