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तुम गीत गा सकते हो। तुम नाच सकते हो। तुम सिर्फ जगह खाली कर सकते हो। तुम सिर्फ कह सकते हो : घर तैयार है, अब तू आ जा! तुम दरवाजा खोल सकते हो। तुम सूरज की किरणों को भीतर थोड़े ही खींच कर ला सकते हो। दरवाजा खोल कर बैठ जाओ; जब आना होगा आ जाएगा। जब घड़ी पकेगी, मौसम पूरा होगा, समय आएगा-आ जाएगा।
वस्तुतः जो खोजी है वह कुछ भी नहीं करता है। वह सिर्फ अपने को ध्यान में उतारता है। ध्यान का अर्थ है: खाली हो कर बैठ जाता है, दरवाजा खोल कर बैठ जाता है। ध्यान का अर्थ है : तम आओगे तो मुझे भरा न पाओगे; तुमने अगर द्वार पर दस्तक दी तो मैं सुन लूंगा, मैं अपने विचारों में उलझा न रहूंगा। नहीं तो बहुत बार होता है, द्वार पर वह दस्तक देता है...शायद रोज ही देता है। देता ही होगा, क्योंकि तुम्हीं तो उसे नहीं खोज रहे, वह भी तुम्हें खोज रहा है। यह खेल एकतरफा नहीं है। यह आग एकतरफा लगी नहीं है। यह दोनों तरफ लगी है। तो ही तो मजा है। तुम ही अगर प्रेयसी को खोज रहे हो, प्रेयसी तुममें उत्सुक ही नहीं है, तो यह प्रेम का फूल कभी खिलेगा नहीं। जब प्रेमी और प्रेयसी दोनों खोजते हैं, तभी प्रेम का फूल खिलता है। जब दोनों पागल हैं, तभी प्रेम का फूल खिलता है। परमात्मा भी तुम्हें खोज रहा है। आता भी है।
रवींद्रनाथ का एक गीत है कि एक रात एक महामंदिर में मंदिर के बड़े पुजारी ने स्वप्न देखा कि प्रभु ने कहा है कि कल मैं आता हूं। पुजारी को भरोसा न आया।
पुजारी तो जगत में सबसे ज्यादा नास्तिक होते हैं। क्योंकि धंधे के भीतरी राज उनको मालूम होते हैं। वे आस्तिक हो नहीं सकते। आस्तिकता तो उनके लिए शोषण का उपाय है। तुम कभी किसी वैज्ञानिक को तो आस्तिक पा सकते हो: शायद कभी किसी कवि में तम्हें झलक मिल जाए आस्तिकता की, कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि कोई दार्शनिक भी अपने ऊहापोह से उठ कर एक दफा आंख खोले और आकाश की तरफ देखे। लेकिन पुरोहित नहीं। क्योंकि पुरोहित को तो पता ही है यह सब जाल है। वह तो जाल के भीतर बैठा है।
ऐसा ही समझो कि मदारी सबको धोखा दे देता; अपने को थोड़े ही धोखा दे सकता है। वह तो जानता है कि कहां छिपा रखी है चीज और कैसे निकलती है। वह तो जानता है कि पत्थर की मूर्ति है, बाजार से खरीद लाये हैं। वह तो जानता है कि रात चूहे भी चढ़ जाते हैं इस मूर्ति के ऊपर और मूर्ति कुछ नहीं कर पाती। और भोग वगैरह कितना ही लगाओ, यह मूर्ति कुछ लेती नहीं है; यह खुद ही ले जाता है सब भोग। पैसे इस पर चढ़ते हैं, पहुंचते उसकी जेब में हैं। वह सब जानता है कि खेल क्या है।
उस बड़े पुजारी को सपना तो आया, लेकिन भरोसा न आया। शायद परमात्मा ने सपने में दस्तक दी। लेकिन डरा भी, भयभीत भी हुआ कि कहीं ऐसा न हो कि आ ही जाए। कभी आया न था। मंदिर हजारों वर्ष पुराना था। बड़ी प्रतिष्ठा का था। सौ तो पुजारी थे मंदिर में। तो थोड़ा बेचैन भी हुआ। बेचैनी दो तरह की थी। किसी को कहे, पुजारियों को कहे तो वे हंसेंगे; क्योंकि वे भी जानते हैं कि कभी आया कि कभी गया, सब बकवास है! लेकिन अगर न कहे और कहीं आ जाये तो फिर मैं ही फंसूंगा मुसीबत में। इसलिए दोपहर होते-होते उसने बात खोल दी। उसने सब पुजारियों को इकट्ठा किया, कहा कि मुझे भरोसा तो नहीं आता, भरोसे की बात भी नहीं है, सपना ही है, लेकिन तुम्हें कह दूं कि रात मैंने सपना देखा कि वह कहता है कि मैं आ रहा हूं; कल तैयारी कर रखना। पुजारी पहले तो हंसे। उन्होंने
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4 |
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