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नहीं कहा प्रभु के उदय से। क्योंकि प्रभु कहो तो तू आ जाता है। नहीं कहा आत्मोदय से। क्योंकि आत्मोदय कहो, मैं आ जाता है। कहा, यस्य बोधोदये, जिसके उदय से। कोई नाम नहीं दिया; कोई सीमा नहीं बांधी। सिर्फ इशारा है; कोई परिभाषा नहीं।
यस्य बोधोदये तावत्स्वप्नवद्भवति भ्रमः। 'उसके उदय से...।'
जैसे सुबह सूरज निकलता और ओस-कण जो अभी-अभी क्षण भर पहले तक मोतियों के जैसे झलकते थे घास की पत्तियों पर, तिरोहित होने लगते हैं ऐसे ही उसके उदय से, उस महासूर्य के तुम्हारे चैतन्य में प्रवेश करने से, वे जो तुम्हारे अब तक के मनोभाव थे, कल्पना के जाल थे, आकांक्षाएं थीं, वासनाएं थीं, तृष्णा थी, मोह था, क्रोध था, लोभ था, वे सब मोती जिन्हें तुमने संजो कर रखा था, ओस की बूंदों की तरह तिरोहित होने लगते हैं। सब भ्रम विसर्जित हो जाते हैं उसके उदय मात्र से, उसकी मौजूदगी से। ___ अब इसमें फर्क समझना। साधारणतः आदमी सोचता है कि मैं मोह को मिटाऊं, क्रोध को मिटाऊं, लोभ को मिटाऊं, ये सारी बीमारियां मिटा डालूं, तब प्रभु का दर्शन होगा। यहां बात उल्टी है। प्रभु के दर्शन से ये सब मिटते हैं। सूरज के उदय होते ही सारे ओस-कण तिरोहित हो जाते हैं।
और देखा, अंधेरा कैसा भागता है! और तुम अगर ओस-कणों की एक-एक मिटाने लगोगे तो क्या मिटा पाओगे? और अगर तुम अंधेरे को काटने लगोगे तो क्या काट पाओगे? उदय होते ही सूर्य के, अंधेरा नहीं रह जाता है। ओस-कण तिरोहित होने लगते हैं, विदा होने लगते हैं। उनकी घड़ी गयी; उनकी मृत्यु का क्षण आ गया। लेकिन अगर तुम ओस-कणों को मिटाने लगो तो कभी इस पृथ्वी से तुम ओस-कण न मिटा पाओगे। और अगर तुम अंधेरे को जलाने लगो, तलवारों से काटने लगो, धक्के दे कर हटाने लगो; तुम्हीं मिट जाओगे, अंधेरा न मिटेगा। . इस सूत्र में यह बात भी छिपी है कि असली सवाल तुम्हारे लोभ, क्रोध, मोह के मिटाने का नहीं है; असली सवाल उसके उदय का है। इसलिए मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि आप सिर्फ ध्यान के लिए कहते हैं। आप अपने शिष्यों को यह नहीं कहते कि कामवासना छोड़ो, क्रोध छोड़ो, मोह छोड़ो, लोभ छोड़ो। आप उनको संसार से भी अलग नहीं करते हैं; घर-गृहस्थी से भी अलग नहीं करते हैं। इस सब प्रपंच में पड़े रहने देते हैं। मैं कहता हूं : 'यस्य बोधोदये—उसके उदय से।' __ और उसके उदय के लिए हम एक ही उपाय कर सकते हैं, वह है कि शांत चित्त, शून्य चित्त, विचार शून्य हो जाएं। अगर तुम विचार शून्य होने लगे तो उसके उदय के लिए तुमने जगह खाली कर दी। बस इतना ही तुम कर सकते हो। इससे अन्यथा आदमी के बस में नहीं है।
. परमात्मा को पाना आदमी के बस में नहीं है। आदमी सिर्फ अपनी प्यास की अभिव्यक्ति कर सकता है। पुकार दे सकता है, लेकिन खींच लेना आदमी के बस में नहीं है। और जो परमात्मा आदमी के खींचने से जाए, वह परमात्मा नहीं है। वह तुमसे भी क्षुद्र हो गया जो तुम्हारी बाल्टी में भरकर चला आया; जो तुम्हारी मुट्ठी में आ गया। वह तुमसे भी गया-बीता हो गया जो तुम्हारी तिजोरी में बंद हो गया, जिसकी चाबी तुम्हारे हाथ में हो गयी।
नहीं, परमात्मा को तुम कभी खींच नहीं सकते; तुम सिर्फ पुकार सकते हो। तुम रो सकते हो।
परमात्मा हमारा स्वभावसिद्ध अधिकार है।
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