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________________ और जलालुद्दीन अपनी कविता में कहता है कि प्रेमी चला गया। यह सूफियों की बड़ी मूलभूत धारणा है। प्रेमी चला गया। उसने वर्षों मेहनत की। चांद आये-गये। सूरज उगे-डूबे! उसने सब फिक्र छोड़ दी। उसने अपने मैं को बिलकुल मिटा डाला। फिर आया वर्षों के बाद; द्वार पर दस्तक दी। वही प्रश्न : कौन है? इस बार उसने कहा : तू ही है, और कोई नहीं। और रूमी कहता है, द्वार खुल गये। __ अगर मुझसे पूछो तो मैं कहूंगा, द्वार अभी खुलने नहीं चाहिए। अगर उपनिषदों से पूछो तो उपनिषद भी कहेंगे कि द्वार अभी खुलने नहीं चाहिए। जरा जल्दी खुल गये। यह कविता थोड़ी और आगे जानी चाहिए। क्योंकि जब प्रेमी ने कहा, तू ही है, तब कितना ही अप्रगट सही लेकिन मैं तो हो गया। नहीं तो तू कौन कहेगा? सन्नाटा नहीं है अभी। अभी तू की आवाज उठती है। तो तू की आवाज बिना मैं के तो उठ सकती नहीं। कहीं छिपा मैं मौजूद है। किसने दिया उत्तर? ____ अगर जलालुद्दीन रूमी कहीं मुझे मिल जाये तो उसे कहूंगा : कविता पूरी कर दो; यह अधूरी है। अगर मुझे कविता पूरी करनी हो तो मैं कहूंगा: प्रेयसी ने फिर कहा वही कि इस घर में दो न समा सकेंगे। यह घर बड़ा संकरा है। माना कि तुम अप्रगट हो कर आये हो, लेकिन अभी भी तुम हो; छिप कर आये हो, मगर अब भी तुम हो; परदा करके आये हो, परदे की ओट में आये हो, मगर अब भी तुम हो; बूंघट डाल कर आये हो, मगर अब भी तुम हो। बुरके से धोखा न होगा। __ और मैं कहूंगा, प्रेमी फिर वापिस चला गया। और तीसरी बार आता ही नहीं है। क्योंकि कैसे आएगा? आने के लिए तो मैं चाहिए। तीसरी बार तो प्रेमी आता नहीं, प्रेयसी उसे खोजने जाती है—जिस दिन उसका मैं बिलकुल मिट जाता है। तो मैं तुमसे कहता हूं : परमात्मा को पाने तुम्हें जाने की जरूरत नहीं है। तुम अगर बिलकुल न हो जाओ तो परमात्मा आता है। आना ही चाहिए; तुमने शर्त पूरी कर दी। तुम जाओगे भी खोजने कहां? तुम किसे खोजोगे? तुम जब तक खोजोगे, तुम रहोगे। खोजनेवाले में तो मैं छिपा ही रहेगा। खोजी तो रहेगा! और जब तक तुम खोजोगे, तुम्हारी नजर रहेगी। किसको खोजोगे? तुम्हारी कोई धारणा रहेगी। तुम्हारा कोई मन में छिपा हुआ भाव रहेगा। तुम वही तो खोजोगे न जो 'तुम' खोज सकते हो! परमात्मा को कैसे खोजोगे? तुम्हारी धारणा का परमात्मा होगा। जब तक तुम हो, तुम्हारी धारणा का जाल रहेगा। और अगर कभी तुम्हें कोई परमात्मा मिल भी जाए तो वह तुम्हारा स्वप्न ही होगा। इसलिए हिंदू कृष्ण से मिल जाएगा; ईसाई क्राइस्ट के दर्शन कर लेगा; बौद्ध बुद्ध की प्रतिमा के सामने खड़े होते-होते धीरे-धीरे एक दिन अंतरप्रतिमा पैदा कर लेगा। वह कल्पना का ही जाल है; भावनामात्रम्; भावना से ज्यादा कुछ भी नहीं है। बड़ी प्यारी भावना है। लेकिन है तो भावना ही। है तो अपनी ही कल्पना का विस्तार। है तो आत्मसम्मोहन ही, ऑटोहिपनोसिस। इससे ज्यादा नहीं है। सुंदर है, शुभ है, प्रीतिकर है; फिर भी सत्य नहीं। सत्य न तो सुंदर है, न असुंदर। सत्य न तो कड़वा है, न मीठा। सत्य न तो फूल है, न कांटा। सत्य तो द्वंद्व के अतीत है। तो सत्य न तो मैं है न तू। सत्य तो 'वह' है। इसलिए उपनिषद कहते हैं : तत्वमसि श्वेतकेतु। हे श्वेतकेतु, तू वह है। वह बड़ी निष्पक्ष धारणा है-न मैं न तू; दोनों के पार। पहला सूत्र है आज अष्टावक्र का, बड़ा अदभुतः यस्य बोधोदये-जिसके उदय से। 254 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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