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________________ स्य बोधोदये तावत्स्वप्नवद्भवति भ्रमः। 7 तस्मै सुखैकरूपाय नमः शांताय तेजसे।। 'जिसके बोध के उदय होने पर समस्त भ्रांति स्वप्न के समान तिरोहित हो जाती है, उस एकमात्र आनंदरूप, शांत और तेजोमय को नमस्कार है।' परमात्मा को, सत्य को, अस्तित्व को हम तीन रूपों में देख सकते हैं। एक-तू के रूप में; जैसा भक्त देखता है : स्वयं को मिटाता है, मैं को गिराता है और परमात्मा को पुकारता है। जैसे प्रेमी अपनी प्रेयसी को देखता है। जैसे मां अपने बेटे को देखती है। खुद को भूल जाता है; परमात्मा 'तू' की तरह प्रगट होता है। • फिर एक रास्ता है ज्ञानी का ः अहं ब्रह्मास्मि! परमात्मा 'मैं' की भांति प्रगट होता है। और एक रास्ता है-कहें कि न ज्ञानी का, न भक्त का अत्यंत संतलन का। वह परमात्मा को 'वह' के रूप में देखता है-न मैं न तू। क्योंकि मैं और तू में तो द्वंद्व है। कहो तू, कितना ही मैं को मिटाओ, तू कहने के लिए मैं तो बना रहेगा। तू में अर्थ ही न होगा अगर मैं न हो। कितना ही कहो मैं नहीं हूं, यह कहते ही तुम तो हो जाओगे; मैं बन जायेगा। अपने को पोंछ दो बिलकुल, कहो कि पैरों की धूल हूं, तब भी रहोगे। 'नहीं हूं,' ऐसी घोषणा में भी तुम्हारे होने की घोषणा ही होगी। जब तक तू है जब तक मैं से बचना संभव नहीं है। क्योंकि मैं और तू एक ही सिक्के के दो पहलू हैं; अलग किये नहीं जा सकते। तू का अर्थ ही यही है कि जो मैं नहीं। तू की परिभाषा ही न हो सकेगी अगर मैं बिलकुल गिर जाये। जलालुद्दीन रूमी की प्रसिद्ध कविता है। प्रेमी ने द्वार पर दस्तक दी प्रेयसी के और पीछे से पूछा गयाः ‘कौन आया है? कौन है?' और प्रेमी ने कहाः 'मैं हूं तेरा प्रेमी।' और भीतर सन्नाटा छा गया। प्रेमी ने दुबारा दस्तक दी और कहा : 'क्या मुझे पहचाना नहीं? मेरी आवाज, मेरे पदचाप पहचाने नहीं? मैं हूं तेरा प्रेमी!' प्रेयसी ने कहा ः 'सब पहचान गयी, लेकिन यह घर बहुत छोटा है। प्रेम का घर बड़ा छोटा है—इसमें दो न समा सकेंगे; इसमें एक ही समा सकता है।' कबीर ने कहा है न, प्रेमगली अति सांकरी, तामें दो न समाय।
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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