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हैं। चौथा भी संदिग्ध है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तीन का तो पक्का है कि चार में से तीन थोड़े अस्तव्यस्त हैं; चौथा भी संदिग्ध है, पक्का नहीं। सच तो यह है कि मनोवैज्ञानिक का भी कोई पक्का नहीं है कि वह खुद भी...। मैं जानता हूं अनुभव से, क्योंकि मेरे पास जितने मनोवैज्ञानिक संन्यासी हुए हैं उतना कोई दूसरा नहीं हुआ है। मेरे पास जिस व्यवसाय से अधिकतम लोग आये हैं संन्यास लेने, वह मनोवैज्ञानिकों का है— थिरैपिस्ट का, मनोविद, मनोचिकित्सकों का । और उनको मैं जानता हूं। उनकी तकलीफ है, भारी तकलीफ है। वे दूसरे की सहायता करने की कोशिश कर रहे हैं। डूबता डूबते को बचाने की कोशिश कर रहा है। वह शायद अपने- - आप बच भी जाता, इन सज्जन के सत्संग में और डूबेगा । ऐसा कभी-कभी हो जाता है। कभी-कभी करुणा भी बड़ी महंगी पड़ जाती है।
मैं एक नदी के किनारे बैठा था । सांझ का वक्त था और एक आदमी वहां कुछ चने चुगा रहा था मछलियों को। हम दोनों ही थे और एक लड़का किनारे पर ही तैर रहा था। वह जरा दूर निकल गया और चिल्लाया कि मरा, डूबने लगा ! तो वह जो आदमी चने चुगा रहा था, एकदम छलांग लगा कर कूद गया। इसके पहले कि मैं कूदूं, वह कूद गया। मैंने कहा, जब वह कूद गया तब ठीक है। मगर कूद कर ही वह चिल्लाने लगा कि बचाओ-बचाओ ! तो मैं बड़ा हैरान हुआ । मैंने कहा, मामला क्या है ? उसने कहा कि मुझे तैरना आता ही नहीं। और एक झंझट खड़ी हो गई— उन दो को बचाना पड़ा। अब यह सज्जन अगर उस बच्चे को बचाने... जब मैं निकाल कर उनको किसी तरह बाहर ले आया तो मैंने पूछा कि कुछ होश से चलते हो, जब तुम्हें तैरना ही नहीं आता... ! तो उन्होंने कहा, याद ही न रही। जब वह बच्चा डूबने लगा तो यह मैं भूल ही गया कि मुझे तैरना नहीं आता। यह मामला इतनी जल्दी हो गया। डूबते देख कर कूद पड़ा बस ।
पर कूदने के पहले यह तो सोच लेना चाहिए कि तुम्हें तैरना आता है !
पश्चिम में मन विक्षिप्त हुआ जा रहा है। जरूरत! बहुत-से लोग डूब रहे हैं, मन की बीमारी में डूब रहे हैं। बहुत-से लोग उन्हें बचाने की कोशिश कर रहे हैं। मैं बड़े से बड़े मनोवैज्ञानिकों का जीवन बहुत गौर से देखता रहा हूं, मैं बहुत हैरान हुआ हूं! खुद सिग्मंड फ्रायड मानसिक रूप से रुग्ण मालूम होता है, स्वस्थ नहीं मालूम होता । जन्मदाता मनोविज्ञान का ! कुछ चीजों से तो वह इतना घबड़ा कि अगर कोई किसी की मौत की बात कर दे तो वह कंपने लगता था । यह कोई बात हुई ! अगर कोई कह दे कि कोई मर गया... उसने कई दफा चेष्टा करके अपने को सम्हालने की कोशिश की, मगर नहीं, दो दफे तो वह बेहोश हो गया। यह बात ही कि कोई मर गया कि वह घबड़ा जाये! मौत
ये तो मन बड़ा रुग्ण है।
सच तो यह है कि यह कहना कि मन रुग्ण है, ठीक नहीं; मन ही रोग है । फिर जितना मन फैलता है...। आज अमरीका में मन का खूब फैलाव है। धन के साथ मन फैलता है। इसलिए तो मन धन चाहता है। धन फैलाव का ढंग है। धन मन की मांग है कि मुझे फैलाओ, मुझे बड़ा करो, गुब्बारा बनाओ मेरा, भरे जाओ हवा, बड़े से बड़ा करो! फिर बड़ा करने से जैसे गुब्बारा एक सीमा पर जा
टूटता है, वैसा मन भी टूटता है। वही विक्षिप्तता है। तुम बड़ा किए चले जाते हो, बड़ा किए चले जाते हो, एक घड़ी आती है कि गुब्बारा टूटता है।
इसलिए मैं कहता हूं कि बहुत धनिक समाज ही धार्मिक हो सकते हैं। जब गुब्बारा टूटने लगता
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4