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________________ है, तब आदमी सोचता है कि कहीं कुछ और सत्य होगा; जिसे हमने सत्य माना था वह तो फूट गया, कि वह तो पानी का बुलबुला सिद्ध हुआ । बुद्धपुरुष के पास तो कोई मन नहीं है, क्योंकि बुद्धपुरुष के पास 'मेरा' नहीं, 'तेरा' नहीं, 'मैं' नहीं, 'तू' नहीं। रस ही बचा । द्वंद्व तो गया । द्वंद्व के साथ ही भीतर बटाव-कटाव भी चला गया। मनोवैज्ञानिक सीजोफ्रेनिया की बात करते हैं— मनुष्य के भीतर दो खंड हो जाते हैं; जैसे दो व्यक्ति हो गये एक ही आदमी के भीतर । तुमने भी अनुभव किया होगा। अधिक लोग सीजोफ्रेनिक हैं दुनिया में। तुमने कई दफे अनुभव किया होगा। तुम्हारी पत्नी बिलकुल ठीक से बात कर रही थी, सब मामला ठीक था, जरा तुमने कुछ कह दिया – कुछ ऐसा जो उसे न जंचा - बस बात बदल गई। अभी क्षण भर पहले तक बिलकुल लक्ष्मी थी, अब एकदम दुर्गा का रूप ले लिया, महाकाली हो गई ! अब वह चाहती है कि तुम्हारी छाती पर नाचे; जैसे कि शिव की छाती पर महाकाली नाच रही है ! तुम चौंकते हो कि जरा-सी बात थी, इतनी जल्दी कैसे रूपांतरण हुआ ! यह महाकाली भी छिपी है । यह दूसरा हिस्सा है। मित्र से सब ठीक चल रहा है, जरा-सी कोई बात हो जाये कि सब मैत्री दो कौड़ी में गई । जन्म-जन्म की मेहनत व्यर्थ गई । जरा-सी बात और दुश्मनी हो गई। जो तुम्हारे लिए मरने को राजी था, वह तुम्हें मारने को राजी हो जाता है। यह सीजोफ्रेनिया है। आदमी का कोई भरोसा नहीं, क्योंकि आदमी एक आदमी नहीं है; भीतर कई आदमी भरे पड़े हैं, भीड़ है। मन तो एक भीड़ है। तुम बहुत आदमी हो। इस भीड़ का कोई भरोसा नहीं। सुबह तुम कहते हो, आपसे मुझे बड़ा प्रेम है। भरोसा मत करना। शाम को ये ही सज्जन जूता मारने आ जायें ! भरोसा मत करना। और ऐसा नहीं कि अभी जो ये कह रहे हैं तो धोखा दे रहे हैं; अभी भी पूरे मन से कह रहे हैं और सांझ भी जूता मारेंगे तो पूरे मन से मारेंगे। तुम जिसको प्रेम करते हो उसी को घृणा करते हो। और तुमने कभी खयाल नहीं किया कि यह मामला क्या है ! जिस पत्नी के बिना तुम जी नहीं सकते, उसके साथ जी रहे हो ! उसके बिना भी नहीं जी सकते हो, मायके चली जाती है तो बड़े सपने आने लगते हैं ! एकदम सुंदर पत्र लिखने लगते हो । पति ऐसे पत्र लिखते हैं मायके गई पत्नी को कि उसको भी धोखा आ जाता है; सोचने लगती है कि यही आदमी है जिसके साथ मैं रहती हूं ! लौट कर धोखा टूटेगा। लौट कर आयेगी तो बस पता चलेगा कि ये तो वही के वही सज्जन हैं जिनको छोड़ कर गई थी। ये एकदम कवि हो गये थे, रूमानी हो गये थे, आकाश में उड़े जा रहे थे ! और ऐसा नहीं कि ये कोई झूठ लिख रहे थे; पत्र जब लिख रहे थे तो सच ही लिख रहे थे। वह भी मन का एक हिस्सा था। पत्नी के आते ही से वह हिस्सा विदा हो जायेगा; दूसरे हिस्से प्रगट हो जायेंगे । जिससे प्रेम है उसी से घृणा भी चल रही है। जिससे मित्रता है उसी से शत्रुता भी बनी है। ऐस द्वंद्व है। इस द्वंद्व में आदमी दुखी है। और इन द्वंद्वों को समेट कर चलने में बड़ी मुसीबत है। इसीलिए तो तुम इतने परेशान हो। ऐसा कचरा कूड़ा सब सम्हाल कर चलना पड़ रहा है। एक घोड़ा इस तरफ जा रहा है, एक घोड़ा उस तरफ जा रहा है। कोई पीछे खींच रहा है, कोई आगे खींच रहा है। कोई टांग खींच रहा है, कोई हाथ खींच रहा है। बड़ी फजीहत है। इस बीच तुम कैसे अपने को सम्हाले चले जा खुदी को मिटा, खुदा देखते हैं 11
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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