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है, यह तो बुद्ध को भी पता चलता है; क्योंकि सिर सिर है, तुम्हारा हो कि बुद्ध का हो। और सिर में पीड़ा होगी तो तुम्हें हो या बुद्ध को हो, दोनों को पता चलती है। लेकिन तुम तत्क्षण तादात्म्य कर लेते हो। तुम कहते हो, मेरा सिर! बुद्ध का 'मेरा' जैसा कुछ भी नहीं है। यह देह मैं हूं, ऐसा नहीं है। तो देह में पीड़ा होती है तो पता चलता है।
पूछा है कि जैसे शरीर की पीड़ा का बुद्धपुरुषों को, ज्ञानियों को, समाधिस्थ पुरुषों को तादात्म्य मिट जाता है, मन के संबंध में क्या है? क्या कोई मानसिक पीड़ा उन्हें होती है?
यह थोड़ा समझने का है। __ शरीर सत्य है और आत्मा सत्य है; मन तो भ्रांति है। शरीर की पीड़ा का बुद्ध को पता चलता है, क्योंकि शरीर सत्य है। और आत्मा की तो कोई पीड़ा होती ही नहीं; आत्मा तो शाश्वत सुख में है, सच्चिदानंद है। मन तो धोखा है। मन किस बात से पैदा होता है? मन तादात्म्य से पैदा होता है। तुमने कहा, यह मेरा शरीर, तो मन पैदा हुआ। तुमने कहा, यह मेरा मकान, तो मन पैदा हुआ। तुमने कहा, यह मेरी पत्नी, तो मन पैदा हुआ। तुमने कहा, यह मेरा धन, तो मन पैदा हुआ। मन तो मेरे से पैदा होता है। मन तो मेरे का संग्रह है। इसलिए तो महावीर, बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट, सभी के उपदेशों में एक बात अनिवार्य है : परिग्रह से मुक्त हो जाओ। 'मेरे से मुक्त हो जाओ। क्योंकि जब तक तुम 'मेरे' से नहीं मुक्त हुए तब तक मन से मुक्त न हो सकोगे। 'मेरे' को हटा लो तो बुनियाद गिर गई, भवन मन का गिर जायेगा।
तुमने देखा, जितना 'मेरा' उतना बड़ा मन। 'मेरा' क्षीण हो जाता है, मन क्षीण हो जाता है। तुम जब राजसिंहासन पर बैठ जाते हो तो तुम्हारे पास बड़ा भारी मन होता है। राजसिंहासन से उतर जाते हो, मन सिकुड़ जाता है, छोटा हो जाता है। इसलिए तो इतना बुरा लगता है-पद खो जाये, धन खो जाये- क्योंकि सिकुड़ना पड़ता है। सिकुड़ना किसको अच्छा लगता है! छोटे होना पड़ता है; छोटे . होने में अपमान मालूम होता है, निंदा मालूम होती है, दीनता-दरिद्रता मालूम होती है। तुम्हारी जेब में जब धन होता है तो तुम फैले होते हो। ___मुल्ला नसरुद्दीन और उसका साथी एक जंगल से गुजर रहे थे। साथी ने छलांग लगाई, एक नाले को पार करना था, वह बीच में ही गिर गया। मुल्ला छलांग लगा गया और उस पार पहुंच गया। साथी चकित हुआ। मुल्ला की उम्र भी ज्यादा, बूढ़ा हो रहा–कैसी छलांग लगाई! उसने पूछा कि तुम्हारा राज क्या है? क्या तुम ओलंपिक इत्यादि में छलांग लगाते रहे हो? कोई अभ्यास किया है ? यह बिना अभ्यास के नहीं हो सकता।
मुल्ला ने अपना खीसा बजाया! उसमें कलदार थे, रुपये थे, खनाखन हुए। उसने कहा : 'मैं समझा नहीं मतलब।' मुल्ला ने कहा कि अगर छलांग जोर से लगानी हो तो खीसे में गर्मी चाहिए। फोकट नहीं लगती छलांग। तुम्हारा खीसा बताओ। खीसा खाली है, गर्मी ही नहीं है, तो छलांग क्या खाक लगाओगे!
छलांग के लिए गर्मी चाहिए। और धन बड़ा गर्मी देता है।
तुमने खयाल किया, खीसे में रुपये हों तो सर्दी में भी कोट की जरूरत नहीं पड़ती। एक गर्मी रहती है! फिर टटोल कर खीसे में हाथ डाल कर देख लेते हो, जानते हो कि है, कोई फिक्र नहीं; चाहो
अष्टावक्र: महागीता भाग-4