SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऐसा भी नहीं है कि तुम दूसरों को बता सकोगे कि मैं कौन हूं। नहीं, गूंगे का गुड़ ! लेकिन तुम जानोगे! और तुम्हें अगर कोई गौर से देखेगा, तुम्हारे पास बैठेगा, तुम्हारी धारा में थोड़ा बहेगा, तो उसे भी थोड़ा-थोड़ा रस मिलेगा, उसे भी थोड़ी-थोड़ी सुगंध आयेगी। अज्ञात लोक उसे भी खींचने लगेगा ! लेकिन जिंदगी भर तो हम रेत के घर बनाने में बिताते हैं । जिंदगी भर तो हम कागज की नावें तैराते हैं! जिसको तुम जिंदगी कहते हो, सिवाय कागज की नाव बनाने के और क्या है ? कुछ अंधेरे रोशनी के साथ आते हैं। कुछ उजाले हैं कि साये छोड़ जाते हैं एक वे हैं पांव कल की सीढ़ियों पर हैं। एक हम इतिहास पर जिल्दें चढ़ाते हैं। जो समय के साथ समझौता नहीं करते एक उपजाऊ धरातल छोड़ जाते हैं। जिंदगी का अर्थ हमने यों लगाया है। हम नदी में रेत के टीले बनाते हैं। कुछ हवाएं हैं कि इतनी तेज चलती हैं। पत्थरों के आदमी भी थरथराते हैं हम हजारों व्यक्तियों से मिल चुके होंगे सब हथेली पर यहां सरसों उगाते हैं यहां बड़े पागलपन में लोग उलझे हैं। हम हजारों व्यक्तियों से मिल चुके होंगे सब हथेली पर यहां सरसों उगाते हैं जिंदगी का अर्थ हमने यों लगाया है। हम नदी में रेत के टीले बनाते हैं • मरते वक्त तुम्हें लगेगा, सब किया अनकिया हो गया; सब बना, मिट रहा है । तुम्हीं मिट रहे हो! जहां तुम्हारा ही रहना तय नहीं है, वहां तुम्हारा बनाया हुआ क्या रहेगा ? जहां से तुम ही हटा लिये जाते हो, वहां तुम्हारे कर्तृत्व के, तुम्हारे कर्ता होने के क्या चिह्न रह जाएंगे ! अष्टावक्र कहते हैं : तुम अगर अविचल हो जाओ तो तुम उसे जान लो जो न पैदा होता, न मरता; तुम उसे जान लो जो न करता - जो बस है ! उस है-पन में डूब जाना परम शांति है, परम मुक्ति है। 'समदर्शी धीर के लिए सुख और दुख में, नर और नारी में, संपत्ति और विपत्ति में कहीं भी भेद नहीं है।' और सुखे दुःखे नरे नार्यां संपत्सु च विपत्सु च । विशेषो नैव धीरस्य सर्वत्र समदर्शिनः ।। सुखे दुःखे...! सुख और दुख हमें दो दिखाई पड़ते हैं। हमें दो दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि हम सुख को चाहते हैं को नहीं चाहते। हमारे चाहने और न चाहने के कारण दो हो जाते हैं। तुम एक दफा चाह दुख धर्म अर्थात सन्नाटे की साधना 207
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy