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________________ है तो प्रकाश भी कहीं पास ही होगा। घबड़ाओ मत! गोरी अपने गांव में पनपा ऐसा रोग ___ हमसे परिचय पूछते हमीं हमारे लोग। भारी रोग फैला है। रोग एक ही है : पता नहीं अपना ही, कि हम कौन हैं! तुमसे जब कोई पूछता है आप कौन हैं, तो कभी तुमने ईमानदारी से कहा कि मुझे पता नहीं। तुम जो भी पता देते हो सब झूठा है, सब कामचलाऊ है। तुम कहते हो, राम कि रहीम; कि इस गांव रहते कि उस गांव रहते, कि इस मोहल्ले रहते कि उस मोहल्ले रहते; कि यह मेरे मकान का नंबर है। यह सब ठीक है, और फिर भी कुछ ठीक नहीं। तुम्हें अपना पता ही नहीं है। - गोरी अपने गांव में पनपा ऐसा रोग हमसे परिचय पूछते हमीं हमारे लोग। दूसरे तो पूछते ही हैं, यह ठीक ही है; तुम खुद भी तो पूछ रहे हो यही कि मैं कौन हूं! जन्म की जो पहली जिज्ञासा है वह यही है। और आखिरी जिज्ञासा भी यही है। ___ मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चे को जो पहला प्रश्न उठता है, सबसे पहला प्रश्न, वह यही है कि मैं कौन हूं। होना भी यही चाहिए। हालांकि इसका कोई पक्का प्रमाण नहीं है, क्योंकि बच्चे बोलते नहीं। और बच्चों में क्या पहला प्रश्न उठता है, कहना कठिन है। लेकिन सब हिसाब से यह मालूम पड़ता है, यही प्रश्न उठता होगा। और कोई प्रश्न उठने के पहले यही प्रश्न उठता होगा कि मैं कौन हूं! चाहे इस तरह के शब्द न भी बनते हों, सिर्फ भावमात्र होता हो; लेकिन बच्चे को यह तो खयाल होता होगा कि मैं कौन हूं। कभी-कभी बच्चे पूछते भी हैं कि मैं कौन हूं? मैं यहां क्यों हूं? मैं कहां से आया हूं? मैं ऐसा ही क्यों हूं जैसा कि मैं हूं? हम सब टाल देते हैं उनके प्रश्न कि ठहरो, जब बड़े हो जाओगे पता चलेगा। बड़े हो कर तुमको भी पता नहीं चला है। बड़े हो कर किसी को पता नहीं चलता। बड़े होने से पता चलने का क्या संबंध है? बड़े हो कर पता चलना और मुश्किल हो जायेगा, क्योंकि और कूड़ा-कर्कट तुम्हारी खोपड़ी पर इकट्ठा हो जायेगा। अभी तो बच्चे की बुद्धि निर्मल थी, अभी बेईमान न था; बड़ा हो कर तो बेईमान हो जायेगा। पहला प्रश्न, मनस्विद कहते हैं, होना यही चाहिए गहरे से गहरे में कि मैं कौन हूं? स्वभावतः और प्रश्न पैदा हों, इसके पहले यह जिज्ञासा तो उठेगी ही कि यह मैं कौन हूं! और अंतिम प्रश्न भी मरते समय यही होता है। होगा भी। जो पहला है, वही अंतिम भी होगा। जहां से चलते हैं, वहीं पहुंच जाते हैं। मरते क्षण भी यही प्रश्न होता है कि मैं कौन हूं। जी भी लिया, सुख-दुख भी झेले, सफल-असफल भी हुआ, खूब शोरगुल भी मचाया, झंझटें, झगड़े-झांसे भी किये; कभी जमीन से उलझे, कभी आसमान से उलझे सब किया-धरा, सब मिट्टी भी हो गया; अब मैं जा रहा हूं, और यह भी पता नहीं चला कि मैं कौन हूं! ___ मैं कौन हूं, इसका उत्तर उसी को मिलता है, जो अविचलमना हो गया। जब तक मन विचलित होता है, इसका पता नहीं चलता। क्योंकि विचलन के कारण तुम्हें अपनी ठीक-ठीक छवि दिखाई नहीं पड़ पाती। ऐसा नहीं है कि कहीं कोई उत्तर लिखा रखा है। इतना ही है कि अगर तुम बिलकुल शांत हो जाओ, एक तरंग न उठे चित्त में, तो उस निस्तरंग दशा में जिसे तुम देखोगे, जानोगे, वही तुम हो। नाच उठोगे! 206 - अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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