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________________ 'आपने कहा कि संसार के प्रति तृप्ति और परमात्मा के प्रति अतृप्ति होनी चाहिए। और आपने यह भी कहा कि कोई भी आकांक्षा न रहे।' परमात्मा कोई आकांक्षा नहीं है, क्योंकि परमात्मा तुम्हारा स्वभाव है। आकांक्षा मात्र पर की होती है। परमात्मा पर है ही नहीं। इसलिए कुछ ज्ञानियों ने तो 'परमात्मा' शब्द का उपयोग ही नहीं किया; सिर्फ 'आत्मा' शब्द का उपयोग किया है, क्योंकि परमात्मा में पर आ जाता है। शब्द में तो आ जाता है, कि जैसे कोई दूसरा। आकांक्षा सदा पर की है; कुछ और की, जो नहीं मिला है, उसकी है। परमात्मा तो तुम्हें मिला ही हुआ है। वह तुम्हारा स्वभाव है। तुम उसे खो भी नहीं सकते; सिर्फ भूल सकते हो या याद कर सकते हो। अतृप्ति तुम्हें याद दिला देगी। जो सदा से तुम्हारे भीतर मौजूद था उसकी प्रतीति और साक्षात्कार हो जायेगा। आकांक्षा का तो अर्थ होता है, जो मेरे पास नहीं है। एक युवक ने मुझसे आकर पूछा कि आप मुझे क्या देंगे अगर मैं संन्यस्त हो जाऊं? तो मैंने उससे कहा, मैं तुम्हें वही दे दूंगा जो तुम्हारे पास है ही और तुमसे वही छीन लूंगा जो तुम्हारे पास नहीं है। __कुछ चीजें हैं जो तुम्हारे पास नहीं हैं और तुम सोचते हो तुम्हारे पास हैं। और कुछ चीजें हैं जो तुम्हारे पास हैं और तुमने भूल कर भी नहीं सोचा कि तुम्हारे पास हैं। मैं तुम्हें वही दे दूंगा जो तुम्हारे पास है। और तुमसे वही ले लूंगा जो तुम्हारे पास नहीं है। जो नहीं है, वह छीन लूंगा; जो है, वह दे दूंगा। अंतरतम की इस अतृप्ति में तुम्हें सिर्फ अपना ही साक्षात्कार होगा। अब इस साक्षात्कार के दो मार्ग हैं, जैसा मैं बार-बार कहता हूं। एक मार्ग प्रेम का है, एक मार्ग ध्यान का। अगर तुम प्रेम के मार्ग से चल रहे हो तो तुम साक्षी की बात ही भूल जाओ। 'साक्षी' शब्द प्रेम के मार्ग पर नहीं आता। वह प्रेम के भाषा-कोष में नहीं है। प्रेमी साक्षी थोड़े ही होता है, भोक्ता होता है। प्रेमी भगवान को भोगता है, साक्षी थोड़े ही! प्रेमी भगवान को जीता है, पीता है; साक्षी थोड़े ही। 'साक्षी' शब्द प्रेम की भाषा का हिस्सा नहीं है। इसलिए तम्हें अडचन हो गयी। अगर प्रेम की भाषा का उपयोग करते हो, अगर प्रेम के मार्ग पर चलते हो, तो तुम अतृप्त हो जाओ, जैसे पागल प्रेमी। जैसे मजनू। ऐसे तुम पागल हो जाओ। भूलो, साक्षी इत्यादि का फिर कोई प्रयोजन नहीं है। अगर तुम प्रेम के मार्ग पर नहीं चल सकते, अगर प्रेम तुम्हारा स्वाभाविक गुणधर्म नहीं है और ध्यान के मार्ग पर चलते हो, तो फिर अतृप्ति नहीं। फिर साक्षी। फिर तुम जागो। जो है उसे देखो। प्रेम का अर्थ है : जो है उसमें डूबो। साक्षी का अर्थ है : जो है उसे देखो। साक्षी का अर्थ है : किनारे बैठ जाओ। प्रेम का अर्थ है : सागर में डुबकी लगाओ। अब यह तुम्हें कठिन होगा एकदम से समझना कि जिसने सागर में डुबकी लगा ली प्रेम के, वह किनारे पर बैठ जाता है। अब यह विरोधाभास मालूम होगा। और जो किनारे पर बैठ गया साक्षी हो कर, उसकी डुबकी लग जाती है। ये दोनों उपाय एक ही जगह पहुंचा देते हैं। उपाय की तरह भिन्न हैं, अंतिम निष्पत्ति की तरह भिन्न नहीं हैं। मगर तुम उस उलझन में अभी न पड़ो। या तो किनारे पर बैठ जाओ। और जिस दिन किनारे पर बैठे-बैठे अचानक पाओगे डुबकी लग गयी, बैठे-बैठे लग गयी, किनारे पर ही मंझधार पैदा हो गयी-उस दिन तुम समझोगे कि अरे, विरोधाभास नहीं था। अलगअलग भाषावली थी। अलग-अलग कहने का ढंग था। या, सागर में डुबकी लगा कर जब तुम अचानक आंख खोलोगे और पाओगे किनारे पर बैठे हो-जल छूता भी नहीं, कमलवत-तब तुम त स्वयं मंदिर है 175
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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