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________________ साधना तो सिद्धि का पर्याय ही है। सिद्धि बाहर से कहीं आती नहीं । प्यास गहरी ही स्वयं में तृप्ति है तृप्ति बाहर से कहीं आती नहीं । 174 आत्मदर्शन द्वार पूरा खोल दे प्राप्ति की प्रेयसी उसी से आयेगी छोड़ दे ओढ़े अहं के आवरण को मुक्ति तेरी अंकिनी हो जायेगी तू स्वयं मंदिर स्वयं ही वंदना है मूर्ति बाहर से कहीं आती नहीं । प्यास गहरी ही स्वयं में तृप्ति है तृप्ति बाहर से कहीं आती नहीं । पूर्ण एवं शून्य में अंतर नहीं कुछ एक ही स्थिति के प्रगट दो रूप हैं एक ही सागर समाया है अतल में दूर से देखो तभी दो कूप हैं दृश्य द्रष्टा में नहीं मध्यस्थ कोई दृष्टि बाहर से कहीं आती नहीं प्यास गहरी ही स्वयं में तृप्ति है तृप्ति बाहर से कहीं आती नहीं । तो जब मैं तुमसे कहता हूं परमात्मा के लिए परिपूर्ण रूप से अतृप्त हो जाओ, प्यासे – उसी प्यास तृप्ति उमगेगी। वही प्यास बीज बन जायेगी। उसी बीज से तृप्ति का वृक्ष पैदा होगा। ऐसा नहीं है कि प्यासे तुम होओगे तो तृप्ति कहीं बाहर से आयेगी । तुम्हारी प्यास में ही तृप्ति का जन्म है। प्यास गर्भ है। तृप्ति उसी गर्भ में बड़ी होती है। तुम्हारे प्यास के गर्भ से ही तृप्ति का जन्म होता है। रमण महर्षि अपने साधकों को कहते थे : एक प्रश्न पूछते रहो, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं ? ऑसबर्न नाम का विचारक उनके पास आया और उसने पूछा कि क्या यह पूछते रहने से उत्तर मिल जायेगा ? क्या ऐसी घड़ी आयेगी कभी जब कि उत्तर मिलेगा ? रमण ने कहा : उत्तर? उत्तर इस प्रश्न में ही छिपा है ! तुम इसे जिस दिन इस प्रगाढ़ता से पूछोगे कि तुम अपना सब कुछ उस पूछने में दांव पर लगा दोगे, बस यही प्रश्न उत्तर बन जायेगा। उत्तर कहीं बाहर से आता नहीं । तुम्हें जो मिलने वाला है, तुम्हारे भीतर छिपा है। परमात्मा की अतृप्ति का इतना ही अर्थ है कि जो बाहर है, अब बहुत खोज चुके, उसे मत खोजो । अब जो भीतर है उसे खोजो । अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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