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________________ इसे समझना। नीरस से कुछ गलत अर्थ मत ले लेना। मुक्त पुरुष नीरस है, क्योंकि उसे परम रस मिल गया। इस जगत में अब उसका रस नहीं रहा। मुक्त पुरुष नीरस है, क्योंकि उसे वह मिल गया है जिसको हम कहते हैं : 'रसो वै सः'। उसने परम धन पा लिया। तुम्हारे ठीकरों में उसे धन नहीं दिखाई पड़ता। इसलिए नहीं कि ठीकरे उसने छोड़ दिये, त्याग दिये। त्यागने योग्य भी उनमें कोई मूल्य नहीं है । उसमें कुछ है ही नहीं जो त्यागा जा सके, कि भोगा जा सके। तुम जिन-जिन चीजों में रस लेते, उसका रस खो जाता। तुम जहां जागे, वहां वह सो जाता है। तुम जहां सोये, वहां वह जाग जाता है। एक परम रस पैदा हुआ है। अब अहर्निश अमृत की धार बरस रही है। अब जहर को कौन पीये, किसलिए पीये ! तुम जिसे रस कह रहे हो, वह रस नहीं है। क्योंकि अगर रस होता तो तुम्हारे जीवन में रसमुग्धता आ गयी होती। तुम रसपूर्ण हो गये होते। तुम्हारे जीवन में महोत्सव फलता, फूल खिलते, नाच होता, उत्सव होता। कुछ भी तो नहीं है। तुम रूखे-सूखे, मरुस्थल जैसे पड़े हो । थके-हारे, सर्वहारा, सब खोये पड़े हो। तुम्हारे जीवन में कहीं भी तो कोई फूल खिलता मालूम नहीं होता। कांटे ही कांटे तुम्हारे जीवन में फैल गये हैं। तुम्हारी सारी कथा कांटों की कथा है। दुख ही दुख और दंश ही दंश । और तुम • कहते हो रस ! तुम जरूर किसी गलत चीज को रस कह रहे हो। जहां रस नहीं है वहां तुम रस देख रहे हो। इस रस का तो विसर्जन हो जाता है। इसलिए यह सूत्र कहता है 'नीरसः'। वैसा परम ज्ञानी नीरस हो जाता है । तुम्हारे रस की दृष्टि से, तुम्हारी भाषा में नीरस हो जाता है। लेकिन अगर तुम दूसरी तरफ से देखो, ज्ञानी की तरफ से देखो तो वह पहली दफा रस से भरता है। वह रस का सागर हो जाता है। उसके जीवन में महाकाव्य पैदा होता है। उसके जीवन में बड़ा संगीत जन्म लेता है। उसके जीवन में विराट की वीणा बजती है और परमात्मा प्रसून खिलते हैं । उस अर्थ में वह नीरस नहीं है । यह मैं तुम्हें स्पष्ट कर दूं, क्योंकि तुम्हारे साथ सदा खतरा है। तुम्हारे साथ खतरा यह है कि तुम नीरस आदमियों को ज्ञानी समझ सकते हो। तुमने ऐसे बहुत से ज्ञानी बना बिठा रखे हैं चारों तरफ, जिनके भीतर कुछ भी नहीं है; जो बिलकुल सूखे हैं। बाहर का छोड़ दिया, भीतर का हुआ नहीं। और तुमने यह सोच कर कि बाहर का छोड़ दिया, नीरस हो गये, त्यागी हो गये, विरक्त हो गये । नहीं, असली विरक्ति की यही पहचान है, कि बाहर के सारे रस चले गये हों और भीतर से अहर्निश रस की धार बह रही हो। तुम जहां रस देखते हो, वहां रस न दिखाई पड़ता हो और फिर भी जीवन में एक परम रस हो । बुद्ध ने तो इस अवस्था को धर्म - मेघ समाधि कहा है। जैसे मेघ बरसता है, रस से भर जाता है, ऐसे कबीर ने बार-बार कहा है कि खूब घने मेघ घिर गये हैं। अमृत की वर्षा हो रही है और कबीर मगन हो कर नाच रहा है। तुम्हारा रस निश्चित खो जाता है। तुम्हारा रस रस ही नहीं है, पहली बात । तो तुम्हारे रस के खोने से आदमी नीरस नहीं होता है। तुम्हारे रस के खोने से ही आदमी के परम रस का द्वार खुलता है। अब दो बातें हैं। या तो तुम परम रस का द्वार खोल लो, तो इस जीवन से रस चला जाये। या तुम इस जीवन का रस छोड़ दो, तो पक्का नहीं है कि परम द्वार खुलेगा या नहीं खुलेगा। शून्य की वीणा : विराट के स्वर 163
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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