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________________ नहीं आने की बात तो पूछ ली थी, जाने की नहीं पूछी। आने तक तो ठीक था कि मुनि सदा के उपवासे हैं - तो होंगे, नदी ने राह दे दी। प्रमाण हो गया। लेकिन अब तो मुनि को हमने अपनी आंख के सामने खुद ही भोजन करवा दिया है। अब कैसे उपवासे हैं? और वे बहुत थाल सजा कर लायी थीं । मुनि सारे थाल समाप्त कर गये। अब वे बड़ी घबड़ाने लगीं। उन्हें बेचैन देख कर मुनि ने कहा, तुम बड़ी चिंतित मालूम पड़ती हो, बात क्या है? उन्होंने कहा कि ऐसा ऐसा मामला है। कृष्ण ने कहा था, यह सूत्र बोल देना । हमने बोला भी, काम भी पड़ गया। नदी ने राह भी दे दी। अब हम क्या करें? हम लौटने की बात पूछना भूल गये । मुनि ने कहा: पागल हुई हो ! वही बात फिर कहना नदी से कि मुनि अगर सदा के उपवासे हों तो राह दे दो। अब तो उन्हें भरोसा भी नहीं था इस बात पर भरोसा होता भी कैसे ? लेकिन कोई चारा भी न था। जाकर कहा, गैर-भरोसे से कहा, लेकिन नदी ने फिर राह दे दी। कृष्ण से आकर उन्होंने पूछा कि अब हमारे बिलकुल सूझ-बूझ के बाहर बात हो गयी। तो कृष्ण ने कहाः मुनि सदा ही उपवासा है। भोजन करने न करने से कोई संबंध नहीं । उपवास का अर्थ जानती हो ? उपवास का अर्थ होता है, जो अपने भीतर विराजमान है। अपने पास बैठा— उपवास । इसका भोजन लेने-देने से संबंध ही नहीं । भोजन नहीं किया, तो अनशन | उपवास का क्या संबंध है ? उपवास का अर्थ होता है : जो अपने पास है; जो अपने निकटतम बैठा है; जो वहां से हटता नहीं। यह मतलब है उपवास का । जो अपने भीतर विराजमान हो गया है, वह भोजन करते हुए भी भोजन नहीं करता है; क्योंकि भोजन तो शरीर में ही जाता, उसमें नहीं जाता। वह साक्षी ही बना रहता है। वह चलते हुए चलता नहीं, क्योंकि चलता तो शरीर है। तुम कभी चले हो आज तक ? चलोगे कैसे? तुम्हारे कोई हाथ-पैर हैं ? शरीर चलता है। तुम बोलोगे कैसे? शरीर बोलता है। तुम सोचोगे कैसे? मन सोचता है। तुम इन सब के पार, सारी क्रियाओं के पीछे साक्षी - रूप हो । 'देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता, सूंघता, खाता हुआ, ग्रहण करता हुआ, बोलता हुआ, चलता हुआ, प्रयास और अप्रयास से मुक्त... ।' न तो वह ऐसा करता न ऐसा नहीं करता। जो होता है, होने देता है। सबको मार्ग देता है। जो प्रभु करवा ले, वही ठीक। उसकी अपनी कोई इच्छा नहीं रही। वह अपना हिसाब नहीं रखता। वह हर हालत में प्रभु के साथ है। उसने तैरना बंद कर दिया। वह नदी के साथ बहा जाता है। इस बहाव का नाम जीवन - मुक्ति है। 'है ।' 'ऐसा महाशय निश्चय ही जीवन-मुक्त ईहितानीहितैः मुक्तः मुक्तः एव महाशयः । 'मुक्त पुरुष सर्वत्र रसरहित है। वह न निंदा करता, न स्तुति करता, न हर्षित होता, न क्रुद्ध होता, न देता और न लेता है।' न निंदति न च स्तौति न हृष्यति न कुप्यति । न ददाति न गृहणाति मुक्तः सर्वत्र नीरसः ।। 162 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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