________________
अष्टावक्र की पूरी प्रक्रिया और मेरा पूरा उपदेश यही है कि तुम पहले उस परम द्वार को खोल लो। तुम बड़े रस को पा लो, छोटा रस अपने से छूट जायेगा ।
क्षुद्र छूट ही जाता है जब विराट हाथ में आता है । व्यर्थ छूट ही जाता है जब सार्थक की गंध मिलती है। जिसको बड़ी संपदा मिल जाती है, वह फिर छोटी संपदा की चिंता कहां करता ! तब त्याग में एक मजा है। तब त्याग में एक सहजता है। बिना किये हो जाता है, करना नहीं पड़ता है। जो त्याग करना पड़े वह झूठा है। उसमें कर्ता तो बच ही जायेगा और अहंकार निर्मित होगा ।
न निंदति न च स्तौति न हृष्यति न कुप्यति ।
ऐसा पुरुष तुम्हारे सब रसों से रहित है। वह न निंदा करता है, न स्तुति करता है।
तुम जरा हैरान होना; रस की चर्चा में निंदा-स्तुति की बात अष्टावक्र ने क्यों उठा दी ? निंदा तुम्हारा रस है । तुम जब निंदा का मजा लेते हो, तुम जब किसी की निंदा करते हो, तब तुम्हारा चेहरा देखो, कैसा रसपूर्ण मालूम होता है ! जीवन में बड़ी ऊर्जा मालूम होती है। निंदा करते लोगों को देखो, कैसे प्रसन्न मालूम होते हैं! दिखता है, यही उनकी एकमात्र प्रसन्नता है । तुम्हें अगर निंदा करने तो तुम बड़े विरस हो जाओगे ।
न मिले
तुम निंदा क्यों करते हो? आखिर लोग निंदा में इतना - इतना मजा क्यों लेते हैं ? काव्यशास्त्र ने नौ रस गिनाये हैं, पता नहीं वह निंदा को क्यों छोड़ गये हैं, क्योंकि वह महारस मालूम होता है। कविता वगैरह तो लोग कभी-कभी पढ़ते-सुनते हैं। और रस तो ठीक ही हैं, निंदा बिलकुल सार्वलौकिक रस है, सार्वभौम । अगर कोई तुम्हारे पास बैठ कर कुछ कहने लगे, किसी की निंदा करने लगे, तुम लाख काम छोड़ देते हो। यह मौका छोड़ते नहीं बनता। अगर वह आदमी बीच में रुक जाये, कहे कि अ
कह देंगे, तो बड़ी मुश्किल हो जाती है। कल तक समय बिताना मुश्किल हो जाता है। तुम कहते हो : अरे भाई, कह ही दो, निपटा ही दो, नहीं तो मन में अटका रहेगा।
आखिर निंदा में इतना रस क्या है ? रस है ! निंदा का अर्थ होता है दूसरे को छोटा दिखाना। दूसरे के छोटे दिखाने में तुम्हें अपने बड़े होने का मजा आता है। तुम बड़े तो हो नहीं। सीधे-सीधे तो तुम बड़े हो नहीं। दूसरे की निंदा करके तुम एक छोटा-सा मजा ले लेते कि तुम बड़े हो ।
सुनी तुमने कहानी अकबर की कि एक लकीर खींच दी उसने दरबार में और कहा : इसे बिना छुए कोई छोटा कर दे। सोचा बहुत, बिना छुए कैसे छोटी होगी। छूना तो पड़ेगा, तभी छोटी होगी। लेकिन बीरबल ने उठ कर एक बड़ी लकीर उसके नीचे खींच दी। बीरबल को निंदा रस का पता होगा । उसने बिना छुए एक लकीर खींच दी बड़ी-छोटी हो गयी लकीर, पहली लकीर छोटी हो गयी।
तुम जब किसी की निंदा में रस लेते हो तो तुम उसकी लकीर छोटी कर रहे हो । उसकी छोटी होती लकीर के कारण तुम्हारी लकीर बड़ी हो रही है। तुम प्रफुल्लित होते हो कि अरे, तो हम से भी बुरे लोग हैं दुनिया में, कोई हम ही बुरे नहीं ! और हम तो फिर कुछ भी बुरे नहीं, इतने बुरे लोग हैं। धीरे-धीरे तुम कहते हो, तो हम तो भले ही हैं। बुरे लोगों का संसार है, इसमें हम नाहक परेशान हो रहे थे।
तुमने एक बात खयाल की, अगर कोई किसी की निंदा करता हो तो तुम प्रमाण कभी नहीं मांगते । तुम यह नहीं कहते कि प्रमाण क्या ? लेकिन कोई अगर किसी की प्रशंसा करता हो तो तुम प्रमा
164
अष्टावक्र: महागीता भाग-4