SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लेकिन पूरब के मनीषियों का यह सारभूत निश्चय है, यह अत्यंत निश्चय किया हुआ दृष्टिकोण है, दर्शन है कि जब तक बुद्धि से तुम चलोगे तब तक तुम कहीं न कहीं उलझाव खड़ा करते रहोगे । गलितधीः.. ...! छोड़ो बुद्धि को ! जो इस विराट को चलाता है, तुम उसके साथ सम्मिलित हो जाओ। तुम अलग-थलग न चलो। यह अलग-थलग चलने की तुम्हारी चेष्टा तुम्हें दुख में ले जा रही है। आदमी कुछ अलग नहीं है। जैसे पशु हैं, पक्षी हैं, पौधे हैं, चांद-तारे हैं, ऐसा ही आदमी है— इस विराट का अंग। लेकिन आदमी अपने को अंग नहीं मानता। आदमी कहता है : 'मेरे पास बुद्धि है। पशु-पक्षियों के पास तो बुद्धि नहीं । ये तो बेचारे विवश हैं। मेरे पास बुद्धि है । मैं बुद्धि का उपयोग करूंगा और मैं जीवन को ज्यादा आनंद की दिशा में ले चलूंगा।' लेकिन कहां आदमी ले जा पाया ! जितना आदमी सभ्य होता है, उतना ही दुखी होता चला जाता है। जितनी शिक्षा बढ़ती, उतनी पीड़ा बढ़ती चली जाती है। जितनी जानकारी और बुद्धि का संग्रह होता है, उतना ही हम पाते हैं कि भीतर कुछ खाली और रिक्त होता चला जाता है ! गलितधीः का अर्थ है : इस धारणा को ही छोड़ दो कि हम अलग-थलग हैं। हम इकट्ठे हैं। सब जुड़ा है। हम संयुक्त हैं। इस संयुक्तता में लीन हो जाओ, तो गलितधीः । तो तुमने बुद्धि को जाने दिया । ध्यान है । बुद्धि के साथ चलना तनाव पैदा करना है। बुद्धि को छोड़ कर चलने लगना विश्राम में है। 'इस ज्ञान से कृतार्थ अनुभव कर गलित हो गयी है बुद्धि जिसकी, ऐसा कृतकार्य पुरुष देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, सुख- पूर्वक रहता है । ' अष्टावक्र कहते हैं : फिर उसे न कुछ छोड़ना है, न कुछ पकड़ना है। जो मिल जाता है, स्वीकार है। जो नहीं मिलता तो नहीं मिलना स्वीकार है। जो होता है, वह होने देता है। उसका जीवन सहज हो जाता है। इस सूत्र को खयाल में लेना । जिनको साधु कहते हो, उनको साधु कहना नहीं चाहिए, क्योंकि उनका जीवन सहज नहीं है। तुम्हारा जीवन असहज है, उनका जीवन भी असहज है। तुम्हारा जीवन एक दिशा में असहज है, उनका जीवन दूसरी दिशा में। तुम ज्यादा खा लेते हो, वे उपवास कर लेते हैं। मगर दोनों में कोई भी सहज नहीं । तुम जब टेबल पर बैठे हो भोजन करने तो तुम भूल ही जाते हो कि शरीर अब कह रहा कि 'कृपा करो, रुको, अब ज्यादा हुआ जाता है। अब स्थान और नहीं है पेट में। अब मत लो। अब तो पानी पीने को भी जगह न रही।' लेकिन तुम खाये चले जा रहे हो । सुनते ही नहीं । असहज हो । फिर तुमसे विपरीत तुम्हारा साधु है । साधु तुमसे विपरीत का ही नाम है। तुम एक भूल कर रहे हो, वह विपरीत भूल करता है । वह बैठा है आसन जमाये । वह कहता है, भोजन करेंगे नहीं, आज उपवास है। शरीर कहता है, भूख लगी है, पेट में आग पड़ती है। पर वह नहीं सुनता। वह कहता है : 'मैं शरीर थोड़े ही हूं। मैं तो शरीर का विजेता हो रहा हूं। मैं जीत कर रहूंगा। यहीं तो मेरा सारा अहंकार दांव पर लगा है कि कौन जीतता है— शरीर जीतता है कि मैं जीतता !' यह भी असहज हो गया। एक का शरीर कह रहा था, बस करो और उसने बस न की । और एक का शरीर कह रहा था, थोड़ी कृपा करो, भूख लगी 148 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy