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तो जो आदमी कहता है, परमात्मा है और गलत हो रहा है, समझ लेना कि वह झूठा आस्तिक है। उसका परमात्मा बिलकुल झूठा है। अभी गलत तो मालूम हो रहा है। उसी को मैं आस्तिक कहता हूं जो कहता है : गलत तो हो ही कैसे सकता है, परमात्मा है ! गलत असंभव है। अगर मुझे गलत दिखाई पड़ता है तो मेरे देखने की कहीं कोई भूल हो रही है। मेरी दृष्टि का, मेरी आंख पर कोई पर्दा है। मेरा देखना साफ-सुथरा नहीं है। कुछ का कुछ देख रहा हूं। मगर गलत हो नहीं सकता। अगर हत्यारा भी मुझे मारने चला आया है, तो कुछ ठीक ही हो रहा होगा, क्योंकि गलत हो कैसे सकता है ? उसकी मर्जी से हो रहा है। उसकी मर्जी के बिना कुछ हो नहीं सकता ।
तो मैं तुमसे कहता हूं : स्वीकार ही सुख है। स्वीकार ही शांति है। और जिस दिन तुम ऐसा स्वीकार कर लोगे कि हत्यारे में भी परमात्मा का ही हाथ है, उस दिन क्या तुम यह सोच पाओगे कि तुम्हारे भीतर परमात्मा के अतिरिक्त कोई और है ? जब हत्यारे में भी वही दिखाई पड़ेगा, तो तुम अपने में भी उसे देख पाओगे। इसलिए स्वीकार ही भगवत्ता है। तुम भगवान होते हो स्वीकार करके ।
पूछा है : 'मुझे भौतिक तल पर अपने 'जो है' को स्वीकार करना कठिन नहीं, लेकिन मानसिक तल पर महत्वाकांक्षा, तज्जनित द्वेष, अप्रेम, हिंसा, विध्वंसक वृत्ति के सिवाय और क्या है? क्या मुझसे अधिक संकीर्ण चित्त वाला और मुझसे बढ़ कर क्षुद्र आशय कोई और हो सकता है ?"
अहले-दिल और भी हैं अहले- वफा और भी हैं एक हम ही नहीं, दुनिया से खफा और भी हैं। हम पे ही खत्म नहीं मसलके शोरिदासरी चाक दिल और भी हैं चाक कबा और भी हैं । सर सलामत है तो क्या संगे-मलामत की कमी जान बाकी है तो पैकाने-कजा और भी हैं।
नहीं, ऐसा तो भूल कर भी मत सोचना कभी कि तुमसे क्षुद्र आशय कौन होगा ! यह सारा संसार, ये सभी लोग कितने ही परमात्मा की बात कर रहे हों, लेकिन इनका परमात्मा बातचीत का है । इनका आशय क्षुद्र है।
विवेकानंद के घर में खाना-पीना नहीं था । बाप मर गये। मां भूखी, खुद भूखे । तो रामकृष्ण ने कहाः ‘तू ऐसा कर जाकर प्रभु को क्यों नहीं कह देता ? जा मंदिर में, तेरी जरूर सुनेंगे। मुझे पक्का भरोसा है। तू जा और कह । जो मांगेगा, मिल जायेगा ।'
विवेकानंद भीतर गये। आधा घंटा बाद आंसुओं से भरे मग्न भाव से डोलते जैसे नशा किया हो, बाहर आये। रामकृष्ण ने कहा : 'मांगा ?' विवेकानंद ने कहा: 'क्या ?' रामकृष्ण ने कहा : 'तुझे भेजा था कि मांग ले जो तुझे चाहिए। यह दुख-दारिद्र्य अलग कर।' विवेकानंद ने कहा: 'मैं तो भूल ही गया। उनके सामने खड़े हो कर मांगना कैसा ! उनके सामने खड़े हो कर तो डोलने लगा। उनके सामने खड़े हो कर मांगना कैसा ?'
कहते हैं, रामकृष्ण ने तीन बार भेजा और तीनों बार यही हुआ। फिर रामकृष्ण खूब खिलखिला कर हंसने लगे। विवेकानंद ने पूछा कि मैं समझा नहीं परमहंसदेव, आप हंसते क्यों हैं? रामकृष्ण ने कहा : अगर आज तू मांग लेता तो मुझसे तेरे सब संबंध छूट जाते। आज न मांग कर तू मेरे हृदय के
रसो वै सः
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