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________________ समझाना चाहता हूं, क्योंकि उनके पास ठीक-ठीक शब्द नहीं है। सरेंडर का अर्थ तो समर्पण होता है, लेकिन गलत होता है; ऐसे ही होता है जैसे कि कोई देश किसी से हार जाये तो सरेंडर कर देता है। एक सैनिक दूसरे से हार जाये तो अपने शस्त्र सरेंडर कर देता है। यही समर्पण का अर्थ है अंग्रेजी में या पश्चिम की किसी भी भाषा में। भारत की भाषा में समर्पण का कुछ और भी अर्थ है। प्रेम में भी समर्पण होता है, युद्ध में ही नहीं। युद्ध में भी हार होती है; लेकिन वह सिर्फ हार है। प्रेम में भी हार होती है; लेकिन प्रेम की हार जीत है। प्रेम में जिसने हारना जान लिया उसने जीतने की कला सीख ली। शिष्य गुरु के पास समर्पण करता है, यह ऐसा नहीं है जैसे कि दुश्मन दुश्मन के पास समर्पण करता है। जैसे पोरस ने सिकंदर के पास समर्पण किया या जर्मनी ने इंग्लैंड के सामने समर्पण किया—यह वैसा समर्पण नहीं है। तो जब मैं किसी पाश्चात्य खोजी को कहता हूं 'सरेंडर', तो वह थोड़ा चौंकता है, सरेंडर! सरेंडर के साथ ही गलत संबंध जुड़े हैं। सरेंडर का मतलब ही यह है कि 'नहीं। हारने को कौन राजी है। पूरब में जब हम कहते हैं 'समर्पण', तो बड़ा और अर्थ है। उसका अर्थ होता है : अब एक ऐसी जगह आ गयी जहां विश्राम करो। अब लड़ो मत। अब लड़ने से हारोगे। अब तो अगर हार जाओ तो जीत जाओ। ___ लाओत्सु कहता है : मुझे कोई हरा नहीं सकता, क्योंकि मैं हारा हुआ हूं। तुम मुझे जीत न सकोगे, क्योंकि मेरी जीतने की कोई आकांक्षा नहीं है। तुम मुझे हरा न सकोगे, क्योंकि मैंने पहले ही समर्पण कर दिया है। ___ और लाओत्सु का सौंदर्य! जीवन जैसा है और जीवन जो दिखाये, और जीवन जो ले आये, उसके लिए पूरा खुला हृदय है। कहीं कोई प्रतिरोध नहीं है, विरोध नहीं है। किसी तल पर किसी तरह का संघर्ष नहीं है। पूछा है : 'आप कहते हैं, जो है, है। उसके स्वीकार में ही सुख है।' उसका स्वीकार ही सुख है। स्वीकार में ही सुख है, ऐसा नहीं। उसमें तो ऐसा भाव है कि स्वीकार करेंगे, फिर सुख होगा। नहीं, स्वीकार ही सुख है। स्वीकार किया नहीं कि सुख हुआ नहीं। साथ ही साथ घट जाता है। करो और देखो। किसी भी चीज को स्वीकार करके देखो। अस्वीकार में दुख है। अस्वीकार का मतलब ही है कि वासना का जाल फैल गया। अस्वीकार का अर्थ ही है कि हम कुछ और चाहते थे प्रभु और यह तूने क्या करवा दिया? हमने कुछ और मांगा था, यह तूने क्या दे दिया? अस्वीकार का अर्थ है : शिकायत हो गयी। अस्वीकार का अर्थ है : गलत हो गया, यह हमने घोषणा कर दी। स्वीकार का अर्थ है : इस परमात्मा के जगत में गलत होता ही नहीं। गलत हो ही नहीं सकता। उसके रहते गलत हो कैसे सकता है? ____ एक बहुत बड़े नास्तिक दिदरो ने लिखा है : संसार में इतना गलत हो रहा है कि परमात्मा हो नहीं सकता। यह बात भी जंचती है। मुझे भी जंचती है। अगर तुम मानते हो कि संसार में गलत हो रहा है तो तुम्हारी परमात्मा में श्रद्धा हो ही नहीं सकती। क्योंकि परमात्मा के होते गलत हो कैसे सकता है? दिदरो की दलील यह है कि या तो परमात्मा है तो फिर गलत नहीं हो सकता। या गलत हो रहा है तो कम से कम इतना तो मानो कि परमात्मा नहीं है। | 122 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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