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________________ बहुत करीब आ गया। क्योंकि यही भक्त का लक्षण है। सब मांगें क्षुद्र हैं। मांग के साथ जीने वाला मन क्षुद्राशय है। फिर मांग हमारी क्या है, इससे फर्क नहीं पड़ता। यह सारा जगत भिखमंगों से भरा है। हरेक मांग रहा है। कोई धन मांग रहा है, कोई ध्यान मांग रहा है। मगर मांग जारी है। कोई कहता है, अच्छा मकान हो। कोई कहता है, मकान-वकान में कुछ फर्क नहीं पड़ता; अच्छा मन दे दो, जिसमें द्वेष न हो, ईर्ष्या न हो! मगर बात तो वही रही। ___जब मैं कहता हूं स्वीकार, तो मेरा अर्थ परम स्वीकार से है, जो है! अगर उसने द्वेष दिया, ईर्ष्या दी, वह भी स्वीकार! इसी स्वीकार में तुम एक चमत्कार देखोगे। इस स्वीकार में एक चमत्कार छिपा है। जैसे ही तुम स्वीकार करोगे, तुम चकित हो जाओगे। इस स्वीकार के दीये के जलते ही द्वेष कहां खो गया, पता न चलेगा। क्योंकि द्वेष और ईर्ष्या और जलन तो मांग की ही छायाएं हैं। जैसे ही तुम्हारे जीवन में स्वीकार आ गया, तुम अचानक पाओगे अप्रेम कहां चला गया, पता न चला। दीया स्वीकार का जले तो अप्रेम, हिंसा और घृणा का अंधेरा अपने-आप मिट जाता है। __ अप्रेम का अर्थ क्या है? इतना ही अर्थ है कि जैसा मैं चाहता था वैसा आदमी नहीं है यह, तो अप्रेम हो गया। जिनको हम प्रेम करते हैं, उनको भी हम कहां पूरा प्रेम कर पाते हैं, क्योंकि उनमें भी हजारों भूलें दिखाई पड़ती हैं, हजार कमियां दिखाई पड़ती हैं। क्षण भर पहले प्रेम करते हैं, क्षण भर में क्रोध आ जाता है, क्योंकि कोई कमी आ गयी। पूर्ण तो कहीं कुछ दिखाई पड़ता नहीं। पूर्ण की हमारी ऐसी असंभव कल्पना है. असंभव धारणा है। कोई उसे परा कर नहीं सकता। परमात्मा भी तम्हारे सामने खड़ा हो तो तुम मेरी मानो, तुम कुछ न कुछ भूल-चूक उसमें निकाल लोगे। तुम जरूर निकाल लोगे कुछ न कुछ भूल-चूक। असंभव है। शायद इसी डर से वह तुम्हारे सामने खड़ा नहीं होता है। तुम लाख चिल्लाते कि साक्षात्कार हो, लेकिन छिपा है। छिपता रहता है। तुम्हें जानता है, तुम्हारे सामने प्रगट हो कर सिर्फ उपद्रव होगा। तुम हजार कमियां निकाल लोगे। तुमने कभी इस तरह सोचा कि अगर परमात्मा तुम्हारे सामने खड़ा हो तो तुम क्या-क्या कमियां निकाल लोगे? बुद्ध तुम्हारे पास से गुजरे, तुमने कमियां निकाल लीं। महावीर तुम्हारे बीच से गुजरे, तुमने कमियां निकाल लीं। कृष्ण तुम्हारे बीच रहे, तुमने कमियां निकाल लीं। क्राइस्ट में तो तुमने इतनी कमियां निकाल लीं कि सूली लगा दी। सुकरात से तो तुम ऐसे नाराज हुए कि जहर पिला दिया। मंसूर को तुमने काट डाला। फकीरों को, संतों को, तुमने कैसा व्यवहार किया है! परमात्मा बहुत बार प्रगट भी हुआ है और हर बार उसने पाया कि तुम कमी निकाल लेते हो। एक कहानी में पढ़ता था कि ईश्वर स्वर्ग में बैठे-बैठे थक गया है। और उसके किसी सलाहकार ने कहा कि आप कहीं थोड़े दिन के लिए छुट्टी पर क्यों नहीं चले जाते ? उसने कहा ः 'कहां जाऊं? छुट्टी पर कहां जाऊं?' तो उन्होंने कहाः ‘बहुत दिन से आप जमीन पर नहीं गये, वहीं चले जायें।' तो उसने कहा: 'न बाबा! जमीन की भूल गये इतनी जल्दी? दो हजार साल पहले मैंने अपने बेटे को भेजा था, जीसस को, क्या हाल किया? वही वे मेरे साथ भी करेंगे!' . तुम भूल निकाल ही लोगे, जब तक कि तुम्हारे जीवन में पूर्ण स्वीकार न हो। और पूर्ण स्वीकार हो तो तुम क्या कोई ऐसी जगह खोज सकते हो जहां परमात्मा दिखाई न पड़े? तब फूल में भी वही 124 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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