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________________ नहीं रखता।' कोई उदारचित्त ! महाशय यानी उदारचित्त । क्षुद्राशय यानी संकीर्णचित्त । तुम उतने ही संकीर्ण हो जितनी संकीर्ण तुम्हारी वासना है। तुम्हारे हाथ में है। तुम उतना ही छोटा कारागृह बना सकते हो जितनी तुम्हारी वासना है। अगर तुम्हें मुक्त होना हो तो तुम सारी वासना को जाने दो। चाहो ही मत कुछ। तुम इसी क्षण मुक्त हो! मोक्ष की चाह नहीं होती; जब कोई चाह नहीं होती तब जो होता है वही मोक्ष है। मोक्ष वासना का बिंदु नहीं है; वासना का विषय नहीं है । वासना के तीर से तुम मोक्ष के लक्ष्य को संधान न कर सकोगे। मोक्ष कोई लक्ष्य ही नहीं है। मोक्ष तो महाशय होने की अवस्था है। विराट हो गया आशय, कुछ चाह न रही - जिस दिन चाह न रही उसी दिन तुम प्रभु हो गये। प्रभु विराजमान हो गया तुम्हारे भीतर। उस परम तृप्ति में स्वच्छ इंद्रियां हो जाती हैं। उस परम तृप्ति में तुम घर लौट आये, यात्रा समाप्त हुई। जिसमें न धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जीवन-मृत्यु के प्रति भी कोई हेय-उपादेय का भाव नहीं, वह कोई उदारचित्त विरला...। धर्मार्थकाममोक्षेषु जीविते मरणे तथा । कस्याप्युदारचित्तस्य हेयोपादेयता न हि ।। 'जिसमें विश्व के नाश की इच्छा नहीं है और उसकी स्थिति के प्रति द्वेष नहीं है, वह धन्य पुरुष इसीलिए यथाप्राप्त आजीविका से सुखपूर्वक जीता है। ' वांछा न विश्वविलये न द्वेषस्तस्य च स्थितौ । यथाजीविकया तस्माद्धन्य आस्ते यथासुखम् ।। वह धन्य है व्यक्ति जिसको कोई भी आकांक्षा नहीं है-न तो संसार रहे, इसकी; न संसार न रहे, इसकी। संसार के विनाश के लिए भी उत्सुक नहीं है। अब तुम खयाल करना, जो आदमी मोक्ष की आकांक्षा कर रहा है वह संसार के विनाश में उत्सुक हो गया है। वह चाहता है: संसार न रहे; यह सब छूटे, यह जाल मिटे; यह सपना टूटे ! " जिसमें विश्व के नाश की इच्छा नहीं और उसकी स्थिति के प्रति द्वेष भी नहीं... ।' जैसा है ठीक है। जैसा है वैसा ही रहे, अन्यथा की कोई मांग नहीं है। ऐसा पुरुष धन्य है । जो मिल जाता है उसमें ही धन्य है । जो प्रभु दे देता है, उसमें ही धन्य है । जो मिला है, उसको प्रसादरूप ग्रहण कर लेता है। जो मिल गया है, वह पर्याप्त है। " . इसलिए यथाप्राप्त से सुखपूर्वक रहता है।' वह यह सोचता ही नहीं कि इससे ज्यादा मिले, और ढंग से मिले, थोड़ा भिन्न मिले। जो मिला है, उससे अन्यथा की पाने की कोई वासना नहीं है। ऐसी अवस्था है ज्ञानी की । ऐसी अवस्था है साक्षी की T और इस साक्षी होने में कोई चीज साधनरूप नहीं है। इस साक्षी होने में साक्षी होना ही साधनरूप है । इस साक्षी होने के लिए तुम्हें कुछ आयोजन नहीं करना है । तुम जैसे हो, आयोजन पूरा है; बस आंख बंद करनी है। भीतर उठाना है इस गहन जिज्ञासा को मैं कौन हूं? उस सबसे संबंध तोड़ते जाना भीतर जो मैं नहीं हूं। अंततः वही बच रहेगा जो तुम हो और एक बार उसका स्वाद आ गया, : वे सहज ज्ञान का फल हैं तृप्ति 111
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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