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स्वादिष्ट फल चख लिए, फिर नीम के कड़वे फलों की चखने की कोई आकांक्षा पैदा नहीं होती । जीवन का परम स्वीकार है इसमें।
अष्टावक्र की वाणी में निषेध नहीं है, नकार नहीं है। जो है, यही परिपूर्ण है। जो है, यही ब्रह्मरूप है। जो है, इसमें ब्रह्म का ही विस्तार है। तुम भी इस विस्तार के अंग बन जाओ। तुम भी अपनी छोड़ो, त्यागो, लीन बनो, एक बनो। एक बनो तो एकाकी । फिर तुम जहां भी रहो, जैसे भी रहो, जो यथाप्राप्त होगा, वही तुम्हारे लिए उत्सव ले आयेगा । तुम धन्य, तुम कृतज्ञ रहोगे! तुम्हारे जीवन से अहर्निश धन्यवाद उठता रहेगा। वैसे धन्यवाद के सतत उठते रहने से ही पहचाना जाता है कि कोई आदमी धार्मिक है। जैसे फूल से सुगंध उठती रहती है, दीये से प्रकाश झरता रहता है - ऐसे ही धार्मिक व्यक्ति के जीवन में धन्यवाद बरसता रहता है।
हरि ॐ तत्सत् !
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4