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संन्यास का अनुशासन : सहजता-प्रवचन-चौथा
दिनांक: 29 सितंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।
सूत्रः
हंतात्मज्ञस्य धीरस्थ खेलतो भोगलीलया। न हि संसारवाहीकैमूरै सह समानता।।60।। यत्यदं प्रेम्मवो दीना: शक्राद्या सर्वदेइवताः। अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुयगच्छति।।61।। तज्जस्य पुण्ययायाथ्यां स्पर्शो ह्रयन्तन जायते। न हयकाशस्थ धूमेन झयमानोऽयि संगतिः।।6211 आत्यवेदं जगत्सर्वं ज्ञातं येन महात्मना। यदृच्छया वर्तमान तं निषेदयं क्षमेत क्र://63।। आब्रह्मस्तम्बयर्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे। विज्ञस्यैव हि सामर्थ्यमिच्छानिच्छाविवर्जने।। 64।। आत्मानमवयं कश्चिज्जानति जगदीश्वरम। यद्वेति तत्स कुस्ते न भयं तस्य कुत्रचित्।। 65।।
7ष्टावक्र ने बड़ी कठिन परीक्षा ली। और जनक जैसे सदय:, अभी-अभी पैदा हुए आत्मज्ञानी
की, अभी-अभी जन्म हुआ अभी-अभी प्रकाश की किरण उतरी। अभी सम्हल भी नहीं पाये जनक। अभी आश्चर्य की तरंगें उठी जा रही हैं। अभी भरोसा भी नहीं बैठा कि जो हो गया है, वह हो भी गया! भरोसा बैठने में थोड़ा समय लगता है। जितनी बड़ी घटना हो, जितनी अज्ञात घटना हो, उतना ही ज्यादा समय लगता है। अभी तो गदगद हैं जनक। हृदय में नयी-नयी तरंगें उठ रही हैं। जो हुआ है वह हो भी सकता है-इस पर भरोसा नहीं आ रहा है। जो हुआ है, वह मुझे हो सकता है इस पर तो और भी भरोसा नहीं आ रहा। जो हुआ है, वह इतने तत्क्षण हो सकता है इस पर कैसे भरोसा आये!
बड़े गहन अहोभाव से भरे जनक। और अष्टावक्र बड़ी कठोर परीक्षा लेते हैं; जैसे अभी-अभी पैदा हुआ बच्चा हो और परीक्षा शुरू हो गयी।