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और राजनीति भी चलेगी ही। आदमी जहां है, राजनीति आ जाएगी।
जब जीसस विदा होने लगे तो उनके शिष्यों ने पूछा : अंत में इतना तो बता दें कि स्वर्ग में आप तो प्रभु के ठीक हाथ के पास बैठेंगे, हम बारह शिष्यों की क्या स्थिति होगी? कौन कहां बैठेगा गुम जीसस को सूली लगने जा रही है और शिष्यों को राजनीति पड़ी है। कौन कहां बैठेगा! यह भी कोई बात थी? बेहूदा प्रश्न था लेकिन बिलकुल मानवीय है।
'नंबर दो आपसे कौन होगा रू नंबर तीन कौन होगा? चुने हुए कौन लोग होंगे? परमात्मा से हमारी कितनी निकटता और कितनी दूरी होगी?'
नहीं, तुम स्वर्ग में भी जाओगे तो वहां भी कुछ गड़बड़ ही पाओगे। किसी को सुंदर अप्सरा हाथ लग जाएगी, किसी को न लगेगी। तुम वहां भी रोओगे कि जमीन पर भी चूके, यहां भी चूके। वहां भी लोग कब्जा जमाए बैठे थे; यहां भी पहले से ही साधु -संत आ गए हैं, वे कब्जा जमाए बैठे हैं। तो मतलब, गरीब सब जगह मारे गए!
__ 'यूं भी गड़बड़ी है, जूं भी गड़बड़ी है!
यूं भी झंझटें हैं और बू भी झंझटें हैं।' यह देखने की दृष्टि है।
तुम मुझसे पूछते हो मेरा दृष्टिकोण क्या है? मैं न तो आस्तिक हूं न नास्तिक। मैं न तो 'ही' की तरफ झुकता हूं न 'ना' की तरफ। क्योंकि मेरे लिए तो 'ही' और 'ना' एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। रामतीर्थ ने जो कहा है, उसी को तुमने सिर के बल खड़ा कर दिया है कुछ फर्क नहीं। तुमने जो कहा है उसी को रामतीर्थ ने पैर के बल खड़ा कर दिया-कुछ फर्क नहीं। तुम समझते हो तुम्हारी दोनों बातों में बड़ा विरोध है-मैं नहीं समझता। अरब जरा गौर से देखने की कोशिश करो।
'राजी हैं उसी हाल में जिसमें तेरी रजा है!' इसमें ही नाराजगी तो शुरू हो गई। जब तुम किसी से कहते हो कि मैं राजी हूं, तो मतलब क्या? कहीं-न-कहीं नाराजी होगी। नहीं तो कहा क्यों? कहने की बात कहां थी? 'कि नहीं, आप जो करेंगे वही मेरी प्रसन्नता है। ' लेकिन साफ है कि वही आपकी प्रसन्नता है नहीं। स्वीकार कर लेंगे। भगवान जो करेगा, वही ठीक है। और किया भी क्या जा सकता है? एक असहाय अवस्था है।
लेकिन गौर से देखना, जब तुम कहते हो कि नहीं, मैं बिलकुल राजी हूं-तुम जितने आग्रहपूर्वक कहते हो कि मैं बिलकुल राजी हूं उतनी ही खबर देते हो कि भीतर राजी तो नहीं हो भीतर कहीं कांटा तो है।
मैं न तो आस्तिक हूं न नास्तिक। मैं न तो कहता हूं किराजी हूं न मैं कहता हूं नाराजी हूं। क्योंकि मेरी घोषणा यही है कि हम उससे पृथक ही नहीं हैं, नाराज और राजी होने का उपाय नहीं। नाराज और राजी तो हम उससे होते हैं, जिससे हम भिन्न हों। यही अष्टावक्र की महागीता का संदेश
तुम ही वही हो, अब नाराज किससे होना और राजी किससे होना? दोनों में दवदव है। वह जो