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ध्यान अर्थात उपराम-प्रवचन-चौदहवां
दिनांक: 9 अक्टूबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।
सूत्र:
अष्टावक्र उवाच।
विहाय वैरिणं काममर्थं चानर्थसंकुलम्। धर्ममण्येतयोर्हेतुं सर्वत्रानादरं कुरु ।। 91।। स्वप्तेन्द्रजालवत् पश्य दिनानि त्रीणि पैल वा। मित्रक्षेत्रधना गारदारदायादिसम्पद ||92 ।। यत्र यत्र भवेतृष्णा संसार विद्धि तत्र वै। प्रौढ़वैराग्यमाश्रित्य वीततृष्ण: सुखी भव ।। 93।। तृष्णमात्रात्मको बंधस्तन्नाशो मोक्ष उच्यते। भवासंसक्तिमात्रेण प्राप्तितुष्टिप्रर्मुहु ।। 94।। त्वमेकश्चेतन: शद्धो जडं विश्वमसत्तथा। अविदयापि किंचित्सा का बभत्मा तथापि ते।। 95।। राज्यं सता कलत्राणि शरीराणि सखानि च। संसक्तस्यायि नष्टानि तव जन्मनि जन्मनि।। 96।। अलमर्थन कामेन सकतेनायि कर्मणा। एभ्य: संसारकांतारे न विश्रांतमभून्मनः ।। 9711 कृतं न कति जन्मानि कायेन मनसा गिरा। दुखमायासदं कर्म तदताध्यपरम्यताम्!/ 98।।
अष्टावक्र ने कहा 'वैरी-रूप काम को और अनर्थ से भरे अर्थ को त्याग कर और उन दोनों के कारण-रूप धर्म को भी छोड़ कर तू सबकी उपेक्षा कर।'