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बोध से जीयो-सिद्धांत से नहीं-प्रवचन-तैहरवां
दिनांक: 8 अक्टूबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना। प्रश्न सार:
पहला प्रश्न :
अष्टावक्र ने कहा कि महर्षियों, साधुओं और योगियों के अनेक मत हैं-ऐसा देख कर निर्वेद को प्राप्त हुआ कौन मनुष्य शांति को नहीं प्राप्त होता है? कहीं इसलिए ही तो नहीं आप एक साथ सबके रोल- महर्षि, साधु और योगो के; अष्टावक्र, बुद्ध, पतंजलि और चैतन्य तक के रोल-पूरा कर रहे हैं, ताकि हम निवेंद को प्राप्त हों?
निश्चय ही ऐसा ही है। जिससे मुक्त होना हो, उसे जानना जरूरी है। जाने बिना कोई मुक्त नहीं होता।
तर्क से मुक्त होना हो तो तर्क को जानना जरूरी है। तर्क में जिनकी गहराई है, वे ही तर्क के पार उठ पाते हैं। बुद्धि के पार जाना हो तो बुद्धि में निखार चाहिए। अति बुद्धिमान ही बुद्धि के पार जा पाते हैं। बुद्धि के पार जाने के लिए जितनी धार रखी जा सके बुद्धि पर, उतना ही सहयोगी है।
वैसे तो यह बात उल्टी दिखाई पड़ेगी, क्योंकि जब बुद्धि से मुक्त होना है तो धार क्यों रखनी? मगर बुद्ध बुद्धि से मुक्त नहीं हो पाते। जिन्होंने बुद्धि का खेल जाना ही नहीं वे तो सदा तत्पर होंगे उस जाल में उलझ जाने को।
विश्वास बुद्धि से नीचे है; आस्था बुद्धि के पार है। विश्वास कर लेने के लिए किसी बुद्धिमत्ता की जरूरत नहीं है, मूढ़ता पर्याप्त है। लेकिन आस्था को जगाने के लिए बड़ी बुद्धिमत्ता की जरूरत है। बुद्धि की सारी सीढ़ियों को, सरणियों को जो पार करता है, उसके ही जीवन में आस्था का प्रकाश होता है।
आस्तिक होना सत्य नहीं है। नास्तिक हुए बिना कोई कभी आस्तिक हुआ ही नहीं, जो हुआ हो तो उसकी आस्तिकता सदा कच्ची रहेगी। वह बिना पका घड़ा है। धोखे में मत आ जाना। उसमें पानी भर कर मत ले आना। नहीं तो घर आते-आते न तो घड़ा रहेगा न पानी रहेगा।
आग से गुजरना जरूरी है घड़े के पकने के लिए। इस जगत में जो परम आस्तिक हुए हैं वे परम नास्तिकता की अग्नि से गुजरे हैं। और यह