________________
दिनांक: 27 सितंबर, 1976
श्री रजनीश आश्रम, पूना ।
सू?
परीक्षा के गहन सोपान - प्रवचन- दूसरा
इहामुत्र विरक्तस्थ नित्यानित्यविवेकिनः । आश्चर्य मोक्षकामस्य मोक्षादेव विभीषिका ।। 5311 धीरस्तु भोज्यमानोउयि यीड्यमानोऽपि सर्वदा । आत्मानं केवलं पश्यन् न तुष्यति न कुष्यति । 15411 चेष्टमानं शरीरं स्व पश्यत्यन्यशरीरवत्। संस्तवे चापि निदाया कथं मुध्येत् महाशयः । 15511 मायामात्रमिद विश्व पश्यन् विगतकौतुक । अपि सन्निहिते मृत्यौ कथं त्रस्यति धीरधी । ! 5611 निस्थहं मानस यस्य नैराश्येउयि महात्मनः । तस्यात्म ज्ञानतृप्तस्थ तुलना केन जायते । ।57।। स्वभावादेव जानानो झयमेतब्र किंचन । हद ग्राह्यमिदं त्याज्य स किं पश्यति धीरधी ।। 5811 अन्तस्लक्तकषायस्थ निर्द्वन्द्वस्थ निराशिष । यद्वच्छ्यागतो भोगो न दुःखाय न तुष्टतेये ।। 59।।
एक फूल का खिल जाना ही,
उपवन का मधुमास नहीं है।
बाहर घर का जगमग करना, भीतर का उल्लास नहीं है।
ऊपर से हम खुशी मनाते, पर पीड़ा न जाती घर से ।