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दूसरा प्रश्न :
कल आपने वानप्रस्थ की अदभुत परिभाषा कही- अनिर्णय की स्थिति का वह व्यक्ति जो दो कदम जंगल की तरफ चलता है और दो कदम वापिस बाजार की तरफ लौट आता है, ऐसी चहलकदमी का नाम वानप्रस्थ है। इस संदर्भ में कृपया समझाएं कि यदि अचुनाव महागीता का संदेश है तो वह व्यक्ति क्या करे-बाजार चुने, या जंगल, या दोनों नहीं? कृपया यह भी समझाएं कि अनिर्णय की दशा में और अचुनाव की दशा में क्या फर्क है?
महागीता का मौलिक संदेश एक है कि चुनाव संसार है। अगर तुमने संन्यास भी चुना तो वह भी संसार हो गया। जो तुमने चुना वह परमात्मा का नहीं है; जो अपने से घटे, वही परमात्मा का है। जो तुमने घटाना चाहा, वह तुम्हारी योजना है; वह तुम्हारे अहंकार का विस्तार है।
तो महागीता कहती है : तुम चुनो मत-तुम सिर्फ साक्षी बनो। जो हो, होने दो। बाजार हो तो बाजार, अचानक तुम पाओ कि चल पड़े जंगल की तरफ, चल पड़े-नहीं चुनाव के कारण सहज स्फुरणा से-तो चले जाओ।
फर्क समझने की कोशिश करो। सहज स्फुरणा से चले जाना जंगल एक बात है, चेष्टा करके, निर्णय करके, साधना करके, अभ्यास करके जंगल चला जाना बिलकुल दूसरी बात है।
मेरे एक मित्र जैन साधु हैं। उनके पास से निकलता था जंगल में उनकी कुटी थी और मैं गुजरता था रास्ते से, किसी गांव जाता था, तो मैंने ड्राइवर को कहा कि घड़ी भर उनके पास रुकते चलें। तो हम मुड़े। जब मैं उतर कर उनकी कुटी के पास पहुंचा तो मैंने खिड़की में से देखा. वे नंगे, कमरे में टहल रहे हैं। कोई आश्चर्य की बात न थी, जंगल में वहां कोई था भी नहीं-किसके लिए कपड़े पहनना? फिर मैं जानता हूं उन्हें कि जैन परंपरा में वे पले हैं और नग्नता का दिगंबर जैन हैं तो नग्नता का बहुमूल्य आदर है उनके मन में बड़ा मूल्य है। मैं जब दरवाजे पर दस्तक दिया, तो मैंने देखा. वे आए तो एक कपड़ा लपेट कर चले आए।
मैंने पूछा कि अभी मैंने खिड़की से देखा आप नग्न थे, यह कपड़ा क्यों लपेट लिया? वे हंसने लगे। वे कहने लगे, अभ्यास कर रहा हूं।
'काहे का अभ्यास?' उन्होंने कहा, नग्न होने का अभ्यास कर रहा हूं।
दिगंबर जैनों में पांच सीढ़ियां हैं संन्यासी की, तो धीरे - धीरे पहले ब्रह्मचारी होता है आदमी, फिर छुल्लक होता, फिर एल्लक होता, फिर ऐसे बढ़ता जाता, फिर अंतिम घड़ी में मुनि होता; मुनि