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कभी किया नहीं; उसका भीतर अपराध - भाव अनुभव होता है। जितना अपराध - भाव अनुभव होता है, उस गड्डे को भरने की चेष्टा करते चलो, फूल खरीद लाओ, आइसक्रीम ले आओ, मिठाई लाओ। जब गड्डा बहुत बड़ा हो जाता है, तो फिर गहना लाओ, साड़ी लाओ। जितना बड़ा गड्डा हो, उ महंगी चीज से भरो। प्रेम जहां भर सकता था, वहां कोई और चीज न भरेगी, तुम कितना ही लाओ। तुम सोचते हो, मैं इतना कर रहा हूं पत्नी सोचती है, प्रेम नहीं मिल रहा। और तुम सोचते हो, मैं कर कितना रहा हूं? रोज इतना लाता हूं सब तुम्हारे लिए ही तो कर रहा हूं लेकिन इससे कुछ हल नहीं होता। प्रेम तो सिर्फ प्रेम से भरता है - तुम्हारे झूठों से नहीं ।
कसे भी ठीक कहता है। अगर आदमियों की जिंदगी देखो तो झूठ से भरी है, बिलकुल झूठ से भरी है। वहाँ सच्चाई है ही नहीं। इस झूठी स्थिति में तुम कभी परमात्मा के दर्शन न पा सकोगे। झूठ, समाज में जीवन तो सरल बना देता है; लेकिन झूठ परमात्म- जीवन में बाधा बन जाता है।
तो अगर तुम मेरी बात समझो तो मैं तुम्हें समाज छोड़ने को नहीं कहता; लेकिन मैं तुमसे उन छो को छोड़ने को जरूर कह देता हूं जिनके कारण तुम समाज के मुर्दा अंग बन गए हो और तुमने जीवन खो दिया है। समाज को छोड़ने से कुछ अर्थ नहीं है, लेकिन सामाजिकता को छोड़ो। रहो समाज में, लेकिन औपचारिकता को छोड़ो, प्रामाणिक बनो! और धीरे- धीरे तुम पाओगे उतरने लगा प्रभु तुम्हारे भीतर। जैसे-जैसे तुम सत्यतर होते हो, वैसे-वैसे आंखें तुम्हारी विराट को देखने में सफल होने लगती हैं।
जो इस संसार में सहयोगी है, वही परमात्मा की खोज में बाधा है। और तुम चकित तो तब होओगे, जैसे जनक चकित हो गए हैं, कहते हैं. 'अहो, आश्चर्य ऐसे तुम भी चकित होओगे एक दिन, जिस दिन तुम पाओगे कि प्रसाद उसका उतरा और तुम सर्वतंत्र स्वतंत्र हो गए हो, और उसका प्रसाद उतर आया और अब फिर तुम्हारे जीवन में एक दायित्व का बोध है, जो बिलकुल नया है। अचानक फिर तुम जीवन की मर्यादाओं को पूरा करने लगे हो, लेकिन अब किसी बाहरी दबाव के कारण नहीं; किसी बाहरी जबर्दस्ती के कारण नहीं। अब तुम्हारे भीतर से ही रस बह रहा है। अब तुमने देखना शुरू किया कि यहां कोई दूसरा है ही नहीं । अब तुमने जाना कि बाहर है ही नहीं, बस भीतर ही भीतर है, मैं ही मैं हूं ।
इसलिए तो जनक कहते हैं, मन होता है अपने को ही नमस्कार कर लूं! अब तो मैं ही मैं हूं । सब मुझमें है, मैं सबमें हूं! उस दिन होता है एक अनुशासन - अति गरिमापूर्ण, अति सुंदर, अपूर्व! होता है एक दायित्व-किसी का थोपा हुआ नहीं, तुम्हारी निज-बोध की क्षमता से जन्मा, स्वस्फूर्त!
स्वस्फूर्त को खोजो - और तुम परमात्मा के निकट पहुंचते चले जाओगे। जबर्दस्ती थोपे हुए के लिए राजी हो जाओ और तुम गुलाम की तरह जीयोगे और गुलाम की तरह मरोगे ।
गुलाम की तरह मत मरना यह बड़ा महंगा सौदा है मालिक की तरह जीयो और मालिक की तरह मरो। और मालकियत का इतना ही अर्थ है कि तुम अपने स्वयं के बोध के मालिक बनो, स्वबोध को उपलब्ध होओ।