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मैं छोटा था। मेरे एक शिक्षक मर गए। उनसे मुझे बड़ा लगांव था। वे बड़े प्यारे आदमी थे। काफी मोटे थे। और जैसे मोटे आदमी आमतौर से भोले-भाले लगते हैं, वे भी भोले-भाले लगते थे। उन्हें हम चिढ़ाया भी करते थे-सारे विद्यार्थी उनकी खूब मजाक भी उड़ाते थे। वे बड़ा साफा-वाफा बांध कर आते, एक तो वैसे ही मोटे, और साफा इत्यादि और डंडा वगैरह-बड़े प्राचीन मालूम होते।
और चेहरे पर उनके बच्चों जैसा भोलापन था, जैसा अक्सर मोटे आदमियों के चेहरे पर हो जाता है। उन्हें देख कर ही हंसी आती। उनका नाम ही लोग भूल गए थे; उनको हम सब भोलेनाथ। उससे वे चिढ़ते थे। ब्लैक बोर्ड पर उनके आते ही बड़े-बड़े अक्षरों में लिख दिया जाता- भोलेनाथ। और बस, वे आते ही से गरमा जाते थे। और उनकी गर्मी देखने लायक थी! और उनकी परेशानी और उनका पीटना टेबल को विदयार्थी बड़े शांति से आनंद लेते उनका।
वे मर गए तो मैं छोटा ही था, गया वहां। वहां बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई थी; छोटा गांव, सभी लोग एक-दूसरे से जुड़े, सभी लोग इकट्ठे हो गए थे। और गांव- भर उनको प्रेम करता था। उनको मरा हुआ पड़ा देखकर और उनके चेहरे को देख कर मुझे एकदम हंसी आने लगी। मैंने रोका क्योंकि यह तो अशोभन होगा। लेकिन फिर एक ऐसी घटना घटी कि मैं नहीं रोक पाया। उनकी पत्नी भीतर से आई और एकदम उनकी छाती पर गिर पड़ी और बोली 'हाय, मेरे भोलेनाथ!'
जिंदगी भर हम उनको ' भोलेनाथ' कह कर चिढ़ाते रहे थे। मरते वक्त, मरने के बाद और पत्नी के मुंह से! यह बिलकुल कठिन हो गया तो मैं तो खिलखिला कर हंसा। मुझे घर लाया गया, डाटा-डपटा गया और कहा, कभी अब किसी की मृत्यु इत्यादि हो, तुम जाना मत! क्योंकि वहां हंसना नहीं चाहिए था।
मैंने कहा, इससे और उचित, अनुकूल अवसर कहां मिलेगा? मेरी बात तो समझो। आदमी बेचारा मर गया और जिंदगी भर परेशान था कि लोग भोलेनाथ कह-कह कर सता रहे थे। बच्चे उनके पीछे चिल्लाते चलते थे कि भोलेनाथ। उनको स्कूल पहुंचने में घंटा भर लग जाता था क्योंकि इस बच्चे के पीछे दौड़े, उस बच्चे के पीछे दौड़े, किसी से झगड़ा-झंझट खड़ा हो गया और मरते वक्त यह खूब उपसंहार हुआ यह इति काफी अदभुत हुई कि पत्नी उनकी छाती पर गिर कर कहती है : 'हाय, मेरे भोलेनाथ!' ।
जो भीतर हो उसे ही बाहर होने देना।
मुझे डाटा-डपटा गया, लेकिन मैं यह बात मानने को राजी नहीं हुआ कि मैंने गलत किया है। और फिर मैंने कहा, जीवन और मौत दोनों ही हंसने जैसे हैं। तो मेरे घर के लोगों ने कहा यह फलसफा तुम अपने पास रखो कि मौत और जीवन हंसने जैसे हैं। मगर तुम दुबारा किसी की मौत में अब मत जाना, और गए तो ठीक नहीं होगा।
व्यक्ति को एक सुनिश्चित निर्णय कर लेना चाहिए कि जो मेरे भीतर हो, उसे मैं दबाऊं नहीं। और जो मेरे भीतर हो, वह मेरे बाहर प्रगट हो। जो मेरे भीतर है, उसे मैं प्रगट करूं या न करूं, वह है तो। न प्रगट करने से धीरे-धीरे मेरे अपने संबंध मेरी अंतरात्मा से टूट जाएंगे। जब रोने की घड़ी