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उस बोध से जीवन में सब बदल जाता है। एक निश्चित एक मर्यादा आती है। और उस मर्यादा में जरा भी गंदगी नहीं है, कुरूपता नहीं है। उस मर्यादा से स्वतंत्रता का कोई विरोध नहीं है; वे मर्यादा के कमल स्वतंत्रता की झील में ही लगते हैं।
तुम जरा देखो! तुम जरा प्रेम से जी कर देखो, ध्यान से जी कर देखो! तुम्हारी पुरानी आदतें बाधा डालेंगी, क्योंकि तुमने कर्तव्य के खूब जाल बना रखे हैं। तुम अपनी पत्नी को प्रेम प्रगट कि चले जाते हो, क्योंकि कहते हो पत्नी है, शास्त्र कहते हैं, जन्म-जन्म का साथ है। लेकिन तुमने एक दिन भी इस पत्नी को प्रेम किया है? इन शास्त्रों ने तुम्हारा जीवन नष्ट किया, और यह पत्नी तुमसे तृप्त नहीं हो सकी। क्योंकि प्रेम तो तुमने कभी किया नहीं, पत्नी को प्रेम करना चाहिए, इसलिए एक नियम का अनुसरण किया, प्रेम कभी बहा नहीं; प्रेम कभी झरा नहीं, प्रेम कभी नाचा नहीं, गुनगुनाया नहीं, प्रेम में कोई गीत नहीं बने- सिर्फ एक नियम कि डाल लिए थे सात फेरे, पंडित-पुजारियों ने ज्योतिष से हिसाब बांध दिया था कि यह तुम्हारी पत्नी, तुम इसके पति, मां-बाप ने कुल - परिवार खोज लिया था, तो अब तो करना ही पड़ेगा ! पत्नी है तो प्रेम तो करना ही पड़ेगा! तुमने इस पत्नी का भी जीवन नष्ट कर दिया, तुमने अपना जीवन भी नष्ट कर लिया।
तुम्हारा प्रेम जब झूठा हो जाता है, तो तुम्हारे परमात्मा से जुड़ने के सब सेतु टूट जाते हैं। तुम पत्नी से न जुड़ सके, पति से न जुड़ सके, तुम परमात्मा से क्या खाक जुडोगे? तुम प्रेम ही न कर पाए, तुम प्रार्थना कैसे करोगे? प्रार्थना तो प्रेम का ही नवनीत है। वह तो प्रेम का ही सार भाग है। जीवन को स्वाभाविक रूप से जीना विद्रोह है। इसलिए मैं कहता हूं. धार्मिक जीवन विद्रोही का जीवन है। धार्मिक जीवन तपस्वी का जीवन है । और ध्यान रखना, तपश्चर्या से मेरा मतलब नहीं कि तुम धूप में खड़े हो, शरीर को काला कर रहे हो या काटे बिछा कर लेट गए हो - ये सब मूढ़ताएं हैं। इनका तपश्चर्या से कुछ लेना-देना नहीं है। तपश्चर्या का इससे कोई संबंध नहीं कि तुम उपवास कर रहे हो कि भूखे मर रहे हो - ये सब मूढ़ताएं हैं। होंगी विक्षिप्तताएं तुम्हारे मन की लेकिन तपश्चर्या से इनका कोई संबंध नहीं ।
तपश्चर्या तो एक ही है कि तुम भीतर से बाहर की तरफ जी रहे हो, फिर जो परिणाम हो; तुम बाहर से भीतर की तरफ नहीं जीयोगे, फिर जो परिणाम हो; तुम जो भीतर होगा, उसी को बाहर लाओगे; तुम अपने बाहर को अपने भीतर के अनुसार बनाओगे ।
अब देखना फर्क। साधारणतः तुम्हें धर्मगुरु समझाते हैं कि जो तुम्हारे बाहर है वही तुम्हारे भीतर होना चाहिए। मैं तुमसे कहता हूं जो तुम्हारे भीतर है, वही तुम्हारे बाहर होना चाहिए। और तुम यह मत समझना कि हम एक ही बात कह रहे हैं।
धर्मगुरु कहता है : जो तुम्हारे बाहर है, वही भीतर होना चाहिए। वह कहता है. तुम मुस्कुराये तो तुम्हारे हृदय में भी मुस्कुराहट होनी चाहिए, अब यह बड़ी अड़चन की बात है। मैं तुमसे कहता हूं जो तुम्हारे भीतर हो वही तुम्हारे ओठों पर होना चाहिए। अगर भीतर मुस्कुराहट है तो फिक्र छोड़ो समय - असमय की चिंता छोड़ो। अगर भीतर मुस्कुराहट है तो हंसों ।