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स्वतंत्रता की झील मर्यादा के कमल-प्रवचन-ग्यारहवां
दिनांक: 6 अक्टूबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना। प्रश्न सार:
पहला प्रश्न :
भारतीय मनीषा ने आत्मज्ञानी को सर्वतंत्र स्वतंत्र कहा है। और आप उस कोटिहीन कोटि में हैं। लेकिन मुझे आश्चर्य होता है कि उस परम स्वतंत्रता से इतना सुंदर अनुशासन और गहन दायित्व कैसे फलित होता है!
एसा प्रश्न स्वाभाविक है। क्योंकि साधारणत: तो मनुष्य अथक चेष्टा करके भी जीवन में अनुशासन नहीं ला पाता। सतत अभ्यास के बावजूद भी दायित्व आंनदपूर्ण नहीं हो पाता। दायित्व में भीतर कहीं पीड़ा बनी रहती है। जो भी हमें कर्तव्य जैसा मालूम पड़ता है, उसमें ही बंधन दिखाई पड़ता है। और जहां बंधन है, वहां प्रतिरोध है। और जहां बंधन है, वहां से मुक्त होने की आकांक्षा
कर्तव्य या दायित्व, हमें लगते हैं, ऊपर से थोपे गए हैं। समाज ने, संस्कृति ने, परिवार ने, या स्वयं की सुरक्षा की कामना ने हमें कर्तव्यों से बंध जाने के लिए मजबूर किया है पर मजबूरी है वहां, विवशता है, असहाय अवस्था है। और जहां भी मजबूरी है, वहां प्रसन्नता और. प्रफुल्लता नहीं हो सकती। जब भी हमें स्वतंत्र होने का अवसर मिलता है, तो हम तत्क्षण स्वच्छंद हो जाते हैं। हम इतनी परतंत्रता में जीए हैं कि हमें अगर स्वतंत्र होने का मौका मिले तो हम सब दायित्व को छोड़ कर, सब कर्तव्य को फेंक कर अराजक स्थिति में पहुंच जाएंगे।
इससे स्वभावत: यह प्रश्न उठता है कि क्या यह संभव है कि सर्वतंत्र स्वतंत्र व्यक्ति, जिसके ऊपर न कोई शासन है, न कोई नियम हैं-यही संन्यासी की परिभाषा है, सर्वतंत्र स्वतंत्र, जिस पर समाज और संस्कृति का कोई आरोपण नहीं है, जो सब मर्यादाओं के बाहर है लेकिन वैसा व्यक्ति मर्यादाओं में कैसे जीता होगा?
हम अपनी तरफ से सोचते हैं तो लगता है, यह तो असंभव है। हम तो मर्यादा छोड़ी कि स्वच्छंद हुए। तो संन्यासी सारी मर्यादाओं के पार जा कर भी अनुशासनबद्ध होता है एक अपूर्व दायित्व बंधन की भांति नहीं, सुगंध की भांति-उससे उठता रहता है। उसकी अंतर्योति उसे कहीं भी भटकने नहीं