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किंचित् मुडचति किंचित् गृहणाति.....। कुछ पकड़ा, कुछ छोड़ा-दोनों बंधन है।
यदा बंध:। जो सुखी होता, दुखी होता। सुख और दुख दोनों में कोई भी आनंद नहीं है। आनंद बड़ी ही पारलौकिक बात है। सुखी आदमी आनंदित आदमी नहीं है, सुखी आदमी दुख को दबाए बैठा है। सुखी आदमी क्षण भर को दुख को भुला बैठा है।
तुम कब अपने को सुखी कहते हो, तुमने खयाल किया पू फिल्म देखने चले गए, दो घंटे फिल्म में डूब गए-तुम कहते हो, बड़ा सुख मिला! बाहर निकले, फिर तुम्हारा दुख मौजूद है। कभी शराब पी ली-तुम कहते हो, बड़ा सुख मिला! सुबह उठे, फिर तुम्हारा दुख मौजूद है, वहीं का वहीं खड़ा है; शायद बढ़ भी गया हो रात में। तुम जब बेहोश पड़े थे, तब दुख बढ़ रहा था। क्योंकि इस जगत में कोई भी चीज ठहरी हुई नहीं है, सब चीजें बढ़ रही हैं। तुम रात सोए थे, वृक्ष बढ़ रहे थे। तुम रात सोए थे, तुम्हारा बच्चा बड़ा हो रहा था। तुम रात सोए थे, तुम्हारा दुख भी बढ़ रहा था। तुम शराब पी कर पड़े थे तो विस्मरण हो गया था, लेकिन विस्मरण से तो कुछ मिटता नहीं। यह तो शुतुरमुर्ग की दृष्टि है।
सुनी है न तुमने बात कि शतुरमुर्ग अपने दुश्मन को देख कर सिर को रेत में खपा कर खड़ा हो जाता है? न दिखाई पड़ता दुश्मन रमुर्ग मानता है : जो दिखाई नहीं पड़ता है, वह हो कैसे सकता है? उसका तर्क तो ठीक है। नास्तिक भी तो यही कहते हैं कि परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता तो हो नहीं सकता। शत अरस्तु के न्याय-शास्त्र को मानता है। उसने सिर गड़ा लिया रेत में वह कहता है, मुझे तो कोई दिखाई नहीं पड़ रहा दुश्मन, तो हो कैसे सकता है? जो मुझे दिखाई न पड़े तो हो नहीं सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण कहां?
लेकिन शुतुरमुर्ग कितना ही सिर रेत में गड़ा ले, दुश्मन सामने है तो है। सच तो यह है, अगर आंखें खुली होती और शुतुरमुर्ग दुश्मन को देखता तो बचने का कोई उपाय भी था। अब बचने का कोई उपाय भी न रहा। अब तो यह बिलकुल दुश्मन के हाथ में है। इसने अपने हाथ से अ दुश्मन को दे दिया। यह तो आत्महत्या है। अगर दुश्मन इसको मार डालेगा, तो दुश्मन की कला कम, शुतुरमुर्ग की आत्महत्या की वृत्ति ज्यादा कारगर है। उसका ही हाथ होगा-आत्महत्या की वृत्ति का। श्मृतुरमुर्ग मत बनना, आंख बंद मत करना।
लेकिन तुम जिसे सुख कहते हो वह सब शुतुरमुर्गी बातें हैं। कभी इसमें कभी उसमें थोड़ा अपने को उलझा लेते हो। कोई ताश के पत्ते लिए बैठा है, खेल रहा है। किसी ने शतरंज बिछा रखी है, झूठे-नकली घोड़े, वजीर-बादशाह बना रखे हैं-खेल रहा है। कैसे लोग डूब जाते हैं, तुम जरा सोचो! शतरंज के खेलने वाले ऐसे डूब जाते हैं कि सारी दुनिया भूल जाती है। कैसी एकाग्रता! और किस पर ये एकाग्रता कर रहे हैं-जहां कुछ भी नहीं है! अपने ही बनाए हाथी-घोड़े हैं!
और मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि शतरंज के हाथी घोड़े ही झूठे हों, ऐसा नहीं है; जो तुम्हारे