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सीधी-सादी थी। कहानी थी कि एक सम्राट था और उसके हरम में, उसके रनिवास में पांच सौ सुंदर स्त्रियां थीं। लेकिन रनिवास उसने अपने महल से पांच मील दूर जंगल में बना रखा था। उसका जो विश्वस्त, सबसे ज्यादा विश्वस्त दास था, सेवक था, उसे सांझ जाना पड़ता था, एक रानी को ले आता था-राजा के रात के भोग के लिए। कहते हैं, राजा तो नब्बे साल तक जीया, लेकिन जो आदमी उसकी स्त्रियों को लाता, ले जाता था, वह चालीस साल में मर गया। फिर उसने दूसरा आदमी रखा, वह भी राजा के मरने के पहले मर गया।
तो कथा-गुरु ने अपने शिष्यों को कहा कि कल तुम सुबह इस पर ध्यान करके इसकी निष्पत्ति मेरे पास ले आना, इसका अर्थ क्या है?
शिष्यों ने बहुत सोचा कुछ अर्थ समझ में न आया कि इसमें अर्थ क्या है? वे वापिस आए। कथा-गुरु हंसा और उसने कहा, अर्थ सीधा-साफ है। आदमी स्त्रियों के भोग से इतनी जल्दी नहीं मरता, जितना स्त्रियों के पीछे भागने से मरता है। वह जो भागता था, रोज जाता, रोज आता-वह चालीस साल में खत्म हो गया। जो भोगता था, वह नब्बे साल तक जीया।
आदमी धन के पीछे भागने से उतना नहीं टूटता, धन को भोगने से उतना नहीं टूटता, जितना धन से भागने से टूटता है। आदमी संसार से उतना नहीं टूटता, जितना संसार से भागने लगे तो टूट जाता है। सांसारिक व्यक्तियों के चेहरे पर तो तुम्हें कभी-कभी रौनक भी दिखाई पड़ जाए; लेकिन जिनको तुम तपस्वी कहते हो, उनके चेहरे पर तुम्हें कोई रौनक नहीं दिखाई पड़ेगी। वे मुर्दा हैं। हा, यह हो सकता है तुम उनके मरेपन को ही तपश्चर्या समझते हो तो तुम्हें दिखाई पड़े कुछ। पीला पड़ जाए आदमी उपवास से तो भक्त कहते हैं; 'कैसा कुंदन जैसा रूप निखर आया! देखो, कैसा स्वर्ण जैसा!' जो उनके भक्त नहीं, उनसे पूछो तो वे कहेंगे : इनको हम पीतल भी नहीं कह सकते, सोना तो दूसरी बात है। यह सोना तुमकी दिखाई पड़ता है; दिखाई भी पड़ता है, यह भी पक्का नहीं-तुम देखना चाहते हो, इसलिए दिखाई पड़ता है।
तुमने कभी तुम्हारे त्यागियों को आनंदित देखा? कभी किसी जैन मुनि को तुमने आनंदित देखा? और तुमने कभी यह भी सोचा कि इतने जैन मुनि हैं, इनमें कोई आनंदित नहीं दिखाई पड़ता, कोई नाचता, गीत गुनगुनाता नहीं दिखाई पड़ता? इनमें तो आनंद होना चाहिए। ये तो सब संसार छोड़ कर चले गए हैं। इन्होंने तो दख के सब रास्ते तोड़ दिए। इन्होंने तो सब सेतु गिरा दिए। इनके हाथ में तो इकतारा होना चाहिए। इनके हृदय में तो वीणा बजनी चाहिए। इनके पैरों में तो अर होना चाहिए। ये तो गाएँ... पद धुंघरू बांध मीरा नाची रे! मगर नहीं, न कोई नाच है, न पद में धुंघरू हैं, न प्राणों में घुघरू हैं। सब उदास, सब खाली, सब रिक्त, सब मुर्दा, मरघट की तरह हैं ये लोग।
तुम्हारे महात्मा यानी जीते - जी मरघट। फिर भी तुम सोचते नहीं कि हुआ क्या है? कहीं ऐसा तो नहीं कि भोग तो गलत है ही, त्याग और भी गलत है? भोगी तो नासमझ है ही, नासमझ है- भोगी से भी ज्यादा नासमझ है।
अष्टावक्र का यह सूत्र सुनो 'जो कुछ त्यागता है, कुछ ग्रहण करता है.....। '