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दृश्य स्वप्न है, द्रष्टा सत्य है-प्रवचन-दसवां
दिनांक: 5 अक्टूबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना। सूत्र:
तदा अधो यदा चित्तं किंचिद्वाच्छति शोचति। किंचिन्मुज्चति गृहणाति किंचिड़ष्यति कुप्यति।। 71।। तदा मक्तिर्यदा चित्तं न वांछति न शोचति। मज्चति न गृहणाति न हष्यति न कथ्यति।। 72।। तदा अधो यदा चित्तं सक्तं कास्वपि दृष्टिषु। तदा मोक्षो यदा चितंसक्तं सर्व द्वष्टिषु।। 73।। यदा नाहं तदर मोक्षो यदाहं बंधन तदा। मत्वेति हेलंयर किंचित् मा गृहाण विमुज्च मा।। 74।।
सजा का हाल सुनाएं, जजा की बात करें, हलै क्त? हो जिन्हें, वो खुदा की त्री ??एँ ।
आदमी अपने दुख की बात करता, अपनी चिंताओं की, बेचैनियों की, अपने संताप की। आदमी वही बात करता है, जो उसे मिला है। जब आनंद की किरण फूटती है, तो एक नई ही बात शुरू होती है। जब प्रभु से मिलन होता, तो सब भूल जाते जन्मों-जन्मों के जाल; जैसे कभी हुए ही न हों जैसे रात में जो देखा था वह सच ही न रहा हो। सुबह का सूरज सारी रातों को झूठ कर जाता। और सूरज के ऊगने पर फिर कौन अंधेरे की बात करे!
जनक के जीवन में ऐसा ही सूरज ऊगा है। और जनक के जीवन में जो घटा है, वह इतना आकस्मिक है कि जनक भी सम्हाल नहीं पा रहे हैं, वह बहा जा रहा है; जैसे कोई झरना अचानक फूट पड़ा हो, जिसके लिए अभी मार्ग भी नहीं है, मार्ग बन रहा है। उसी मार्ग बनाने में सहारा दे रहे हैं अष्टावक्र| पहले परीक्षा की, फिर प्रलोभन दिया। आज के सूत्रों में प्रोत्साहन है। परीक्षा ठीक उतरी, जनक उत्तीर्ण हुए। प्रलोभन भी व्यर्थ गया जनक उसमें भी न उलझे। जो हुआ है सच में ही हुआ है, कसौटी पर खरा आया। अब प्रोत्साहन देते हैं। अब पीठ थपथपाते हैं। अब वे उसे कहते हैं कि ठीक हुआ। अब जो जनक ने कहा है, उसको अष्टावक्र दोहरा कर साक्षी बनते हैं।