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मेरे साथ उलझ भी जाओ, सुनते-सुनते शायद तुम मुझमें धीरे- धीरे पग जाओ। लेकिन आए थे तुम सुनने। सुनते-सुनते शायद तुम गुनने भी लगो । गुनते - गुनते शायद तुम गुनगुनाने भी लगो। मेरे पास बैठते-बैठते हो सकता है यह पागलपन तुम्हें भी छू जाए। तुम मदमस्त हो जाओ। लेकि तुम आए थे मुझे सुनने ।
शब्द की गति है जगत में। शब्द के अतिरिक्त और कोई संवाद का उपाय नहीं दिखाई पड़ता । इसलिए स्त्रियां सदगुरु तो हुईं, लेकिन उनका पता भी नहीं चल सका । ज्ञान को तो उपलब्ध हुईं लेकिन वे गुरु न बन पाईं। शिष्य तो शब्द सुनने आते हैं। मीरा ने ऐसे अदभुत भजन गाए फिर भी कोई शिष्य थोड़े ही पैदा कर पाई मीरा । कोई मीरा की स्थिति सदगुरु की तरह थोड़े ही है। अदभुत गाया, जिन्होंने सुना उन्होंने भी रस पाया; लेकिन गुरु की स्थिति तो नहीं बन पाई। क्योंकि गुरु का तो अर्थ ही यह है : जो मीरा को मिला था वही वह दूसरों को भी मिलाने में सहयोगी हो जाती । वह नहीं हो पाया। स्त्री के चित्त की अपनी व्यवस्था है।
मैं
कहूंगा : अगर तुझे भर जाए भाव, बांटने का मन होने लगे और शब्द कहने को न मिलें, किसी के पैर दबाने लगना; वह तेरा रास्ता होगा। किसी का सिर दबाने लगना, किसी को प्रेम देना, नाचना, गाना, गुनगुनाना खोजना कोई उपाय । शब्द तो तेरा उपाय नहीं हो सकता । लेकिन बांटना तो पड़ता है, बिना बांटे रहा नहीं जा सकता। जब सुगंध आ गई फूल में तो पंखुरी को खिलना ही होगा, सुगंध को विसर्जित होना ही होगा, गंध चढेगी पंखों पर हवा के जाएगी दूर-दूर लोकों तक, तो नियति पूरी होती है।
ऐ कल्पना के दर्पण! तन-मन तुझ पर अर्पण जब होंगे तेरे दर्शन
धड़कन हरसूं होगी।
कोयल की तरह मेरा
चंचल मन मचलेगा
जब आम के पेड़ों पर
हरसूं कू-कू होगी।
जब समाधि की पहली झलक आती है तो ऐसा ही होता है।
ऐ कल्पना के दर्पण!
तन-मन तुझ पर अर्पण
जब होंगे तेरे दर्शन
धड़कन हरसूं होगी।
तब तुम्हारा हृदय ही नहीं धड़कता है जब समाधि फलित होती है - तब तुम पहली दफे पाते हो तुम्हारे हृदय के साथ सारा जगत धड़क रहा है। पत्थर भी धड़क रहे हैं, वहां भी हृदय है। वृक्ष भी