________________
मन–क्योंकि जब भीतर कुछ घटता है तो हम बांटना चाहते, साझीदार बनाना चाहते औरों को। जब रस भीतर बहता है तो हम चाहते हैं किसी और को भी मिल जाए। लोग इतने प्यासे हैं, लोग इतने भूखे हैं, लोग इतने जल रहे हैं, तो बांटने की इच्छा पैदा होती है। लेकिन जब भी कहने का सवाल उठे तो कहने की जगह हंसना, हेमा! नाचना, गुनगुनाना! उससे आसान होगा। शब्द तुम न बना सकोगी। शब्द तुम्हारा संभव नहीं होगा। कुछ और ढंग से तुम्हें कहना होगा-जैसे मीरा ने कहा, गुनगुना कर कहा बुद्ध ने कह कर कहा; जैसे चैतन्य ने कहा, ले गए, ले कर मंजीरा और मदंग, नाचते हुए कहने लगे।
अपना ढंग खोजना होगा। शब्द निश्चित तुम्हारा ढंग नहीं है। हंसो, नाचो, गुनगुनाओ हजार ढंग हो सकते हैं।
लेकिन अपना ढंग खोजना ही पड़ता है, जब घटना घट जाती है। नहीं तो भीतर कुछ उबलने लगता है। और भीतर कुछ तैयार होता है, पकता है -और हम उसे बांट न पाएं तो बोझिल होने लगते हैं, जैसे वर्षा के मेघ जब भर जाते जल से तो वर्षा होती है। वर्षा स्वाभाविक है।
(इतने में किसी को जोर से रुलाई आई और लोग उसे रोकने को दौड़े। भगवान श्री ने एक संन्यासी को संबोधित करते हुए कहा : 'संत, छोड़ दो। छोड़ दो उन्हें। छोड़ दो। छोड़ दो उन्हें। वह शांत हो जाएंगे, छोड़ दो। बिलकुल छोड़ दो, अलग हट जाओ। दूर हट जाओ उनसे।)
प्रत्येक को अपनी विधि, अपनी व्यवस्था खोजना पड़ती है। अभिव्यक्ति सभी के लिए एक जैसी नहीं हो सकती। फिर स्त्री-पुरुषों में भी बड़ा फर्क है। इसलिए तो तुम्हें स्त्री सदगुरु बहुत कम दिखाई पड़ते हैं-उसका कारण यह नहीं है कि स्त्रियां मोक्ष को उपलब्ध नहीं हुईं। मेरे देखे तो स्त्रियां मोक्ष को ज्यादा आसानी से उपलब्ध हो सकती हैं, बजाय पुरुषों के। क्योंकि पुरुषों के अहंकार को गिरने में बड़ी देर लगती है। स्त्रियों का अहंकार बड़ी सरलता से गिर जाता है। लेकिन फिर भी तुम्हें बुद्ध महावीर, पार्श्व, कृष्ण, क्राइस्ट, शंकर, नागार्जुन ऐसे पुरुषों की श्रृंखलाबद्ध कतार दिखाई पड़ती है- ऐसे स्त्रियों के नाम लेने जाओ तो उंगलियों पर भी नहीं गिने जा सकते। कभी कोई सहजो, कोई मीरा, राबिया, थैरेसा-बस ऐसे तीन चार नाम हैं। इसका यह अर्थ नहीं है, इस गलत तर्क में मत पड़ जाना कि इसलिए स्त्रियां मोक्ष को उपलब्ध नहीं हुईं या स्त्रियों ने पाया नहीं, या स्त्रियां पा नहीं सकतीं।
स्त्रियों ने पाया-उतना ही जितना पुरुषों ने, शायद थोड़ा ज्यादा। लेकिन स्त्रियां शब्द में नहीं कह पातीं। यह अड़चन है। और बिना शब्द में कहे, तुम्हें बुद्ध का पता न चलता अगर बुद्ध ने शब्द में न कहा होता। अगर बुद्ध चुप बैठे रहते बोधि वृक्ष के नीचे, किसी को कानों-कान खबर न होती। अगर मैं न बोलूं तो तुम यहां न आ सकोगे। मैं तो न बोल कर भी मैं ही रहूंगा। क्या फर्क पड़ेगा मेरे न बोलने से? मेरे लिए कोई फर्क न पड़ेगा, लेकिन तुम न आ सकोगे।
तुम मुझे सुनने आए हों-सुनते -सुनते शायद तुम फंस भी जाओ सुनते-सुनते शायद तुम