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उलटे बहते। विपरीत करते कुछ।
तो देखना तुम, तुम्हारा त्यागी, तुम्हारा महात्मा महत रूप से अहंकारी हो जाता है। वह धारे के विपरीत बह रहा है। वह तुमसे कहता है. 'तुम क्या हो, क्षुद्र मनुष्य! पापी! कामवासना में पड़े हो । देखो मुझे, ब्रह्मचर्य साध रहा हूं! तुम हो क्या? जमीन के कीड़े, लोभ में पड़े हो, क्रोध में पडे हो! क्षुद्र क्षणभंगुर में पडे हो! मुझे देखो, विराट की तलाश कर रहा हूं!'
तुम जरा अपने महात्माओं को जा कर गौर से तो देखना। उनकी आंख में ही तुम्हारी निंदा है। उनके व्यवहार में तुम्हारी निंदा है। उनके उठने-बैठने में तुम्हारी निंदा है। वे धारे के विपरीत जा रहे हैं। उन्होंने अहंकार छोड़ने की कोशिश की है, वासना छोड़ी, क्रोध छोड़ा, धन छोड़ा, परिवार छोड़ा, सब छोड़ा। तुम क्या कर रहे हो? तुम साधारण भोगी! तुम गंगा में बह रहे हो। तुम्हें भी लगता है कि बात तो ठीक है, हम कर क्या रहे हैं? इसलिए तुम भी महात्माओं के चरण छूते हो। महात्माओं के चरण छूने में तुम इतना ही कहते हो कि करना तो हमको भी यही है, कर नहीं पा रहे, मजबूइरयां हैं, हजार झंझटें हैं, घर-द्वार, बाल-बच्चे, पाल ली उलझन ! कर नहीं पा रहे, लेकिन आपको देख कर प्रसन्नता होती है कि चलो कोई तो कर रहा है।
तुम कोई आदमी शीर्षासन लगाए खड़ा हो तो रुक कर देखने लगते हो। पैर के बल खड़े आदमी को कौन देखता है! वह कुछ उलटा कर रहा है। काटो पर कोई आदमी सोया हो तो लोग फूल चढ़ा लगते हैं। लेकिन तुम अच्छी शैया लगा कर और लेट जाओ, कोई फूल न चढ़ाका । उलटे लोग पत्थर मारने लगेंगे कि 'यह क्या लगा है? बीच में, बाजार में उपद्रव किया हुआ है! बिस्तर अपने घर में लगाओ!' लेकिन काटो की शैया पर कोई सो जाए तो लोग फूल चढ़ाते हैं। अच्छे बिस्तर पर, ज्ञानदार बिस्तर को लगा कर कोई लेट जाए तो लोग पत्थर मारते हैं।
क्या, मामला क्या है? आदमी उलटे में रस लेता मालूम होता है, क्योंकि उलटे में पता चलता है कि कोई कुछ कर रहा है।
'मैं कार चला रहा हूं पहाड़ी रास्ता है और यात्रा ऊपर की ओर है।
सभी यही कर रहे हैं, यही सबका सपना है, और यही सबकी जिंदगी है। और तुम्हारी जिंदगी इस सपने से भिन्न नहीं है।
'अचानक कार पीछे की तरफ जाने लगती है- रिवर्स । और मैं रोकने की कोशिश करता हूं ।'
ऐसे मौके जीवन में बहुत बार आएंगे कि तुम तो ले जाना चाहते हो पहाड़ की चोटी पर लेकिन जीवन की घटनाएं तुम्हें पीछे की तरफ ले जाने लगती हैं। तब घबड़ाहट पैदा होती है। तुम तो जाना चाहते हो गंगोत्री की तरफ और गंगा जा रही है सागर की तरफ, वह तुम्हें सागर की तरफ ले जाने लगती है। कई दफा तुम थक जाते। कई दफा तुम हार जाते । स्वाभाविक के विपरीत कब तक लड़ोगे? अगर कार को ऊपर ले जाना हो तो पेट्रोल चाहिए। नीचे लाना हो तो पेट्रोल की कोई जरूरत नहीं है, तो पेट्रोल बंद कर दो, कार अपने से चली आएगी, क्योंकि नीचे आना स्वाभाविक है; ग्रेवीटेशन, जमीन की कशिश खींच लेती है। ऊपर जाना अस्वाभाविक है, इसलिए बड़ी शक्ति की जरूरत पड़ती है।