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तो मैं तुम्हारे विपरीत किन्हीं आदर्शों को तुम्हारे ऊपर नहीं थोपना चाहता। क्योंकि तुम्ही थोपोगे उन्हें, अड़चन खड़ी होगी। मैं तो चाहता हूं कि तुम जीवन जैसा तुम्हारा है, जो तुम्हारे जीवन का यथार्थ है, उस यथार्थ को समझो। उसी यथार्थ की समझ में से खिलेंगे फूल, उठेंगे गीत। उसी यथार्थ के बोध में से तुम्हारे जीवन में क्रांति घटेगी। क्रांति घटती है-तुम्हारे घटाए नहीं घटती। तुम जाग कर देखने लगो जो है-और घटती है!
क्रांति प्रभु–प्रसाद है।
दूसरा प्रश्न :
एक ही सपना बार-बार पुनस्थ्य होता है, इसलिए पूछता हूं। सपना ऐसा है: मैं कार चला रहा हूं, पहाड़ी रास्ता है और यात्रा ऊपर की ओर है। अचानक कार पीछे की तरफ जाने लगती है-रिवर्स।
और मैं रोकने की कोशिश करता हूं, लेकिन न मैं गियर संभाल पाता हूं और न ब्रेक और न स्टीयरिंग। असहाय होकर दुर्घटना के किनारे पहुंच जाता हूं और तभी चौंक कर जाग जाता हूं। कभीकभी कार जब उतार पर होती है, तब भी मेरा सब नियंत्रण जाता रहता है। लेकिन एक बात सदा महसूस होती है कि यदयपि मैं ड्राइवर हूं तो भी मेरा पैर एक्सीलरेटर पर नहीं है। गाड़ी अपने आप चलती है। मैं रोकने की कोशिश करता हूं और नियंत्रण नहीं रख पाता हूं।
पूछा है 'अजित सरस्वती' ने।
सपना महत्वपूर्ण है और सभी के काम का है। और अभी-अभी जो मैं पहले प्रश्न के उत्तर में कह रहा था, उससे जुड़ा हुआ है। उसी संदर्भ में समझने की कोशिश करना।
'मैं कार चला रहा हूं, पहाड़ी रास्ता है, यात्रा ऊपर की ओर है।
सभी लोग जीवन को ऊपर की ओर खींच रहे हैं पहाड़ी पर! आदर्श यानी पहाड़, ऊपर! सभी कोशिश कर रहे हैं. गंगोत्री में पहुंच जाएं गंगा में तैर कर। गंगा के साथ जाने को कोई तैयार नहीं विपरीत जा रहे हैं। धार के विपरीत बह रहे हैं।
अहंकर को मजा ही धार के विपरीत बहने में है। धार के साथ बहने में क्या मजा! धार के साथ बहने में तो तुम बचते ही नहीं, धार ही बचती है। तुम्हारा क्या है? छोड़ दिए हाथ-पैर, चल पड़े, तो गंगा तुम्हें ले जाएगी सागर तक, गिरा देगी वहां बंगाल की खाड़ी में। लेकिन तुम्हारा क्या? तुम इतना भी तो न कह पाओगे कि मैंने इतनी यात्रा की। लोग हंसेंगे। वे कहेंगे, 'तुमने यात्रा की? यह तो गंगा की यात्रा है। तुम तो बचे कहां? तुम तो उसी दिन मिट गए जिस दिन तुमने धार में अपने को छोड़ा। तुम तो बच सकते थे एक ही तरकीब से कि लड़ते धार से, जाते ऊपर की तरफ।