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वहीं से पकड़ लेता हूं।
कहां खोजोगे तुम, तुम खोजोगे कैसे? सूफियों का तो पता भी न चलेगा, क्योंकि जीवन को बड़ी सहजता से।
ये जो वक्तव्य हैं, सूफियों के वक्तव्य हैं। ये जो जनक ने कहे, यह सूफी मत का सार है।
'मुझ अंतहीन महासमुद्र में निश्चित ही संसार कल्पना मात्र है। मैं अत्यंत शांत हूं निराकार हूं और इसी के आश्रय हूं।'
मम्पनंतमहाम्भोधौ विश्व नाम विकल्पना! यह विश्व तो नाममात्र को है, कल्पना मात्र है। यह वस्तुत: है नहीं- भासता है। यह तो हमारी धारणा है। यह तो हमारी नींद में चल रहा सपना है। हम जागे हुए नहीं हैं, इसलिए जगत है। हम जाग गए तो फिर जगत नहीं।
तुम थोड़ा सोचो! जगत कैसा होगा अगर तुम्हारे भीतर कोई वासना न बचे, तुम्हारे भीतर कुछ पाने की आकांक्षा न बचे। कुछ होने का पागलपन न बचे? तो क्या तुम इसी जगत में रहोगे फिर? तुम अचानक पाओगे कि तुम्हारा जगत तो पूरा रूपांतरित हो गया। क्योंकि जो आदमी जो खोजता है उसी के आधार पर जगत बन जाता है। ऐसा हो सकता है कि तुम जिस रास्ते से रोज गुजरते हो, रास्ते के किनारे ही बंबा लगा है पोस्ट ऑफिस का, लेटर-बॉक्स लगा है, लाल रंग के हनुमान जी खड़े हैं, मगर तुम्हारी नजर शायद कभी न पड़े, लेकिन जिस दिन तुम्हें पत्र डालना है, उस दिन अचानक तुम्हारी नजर पड़ जाएगी। उसी रास्ते से तुम रोज गुजरते थे लेकिन पत्र डालना नहीं था, तो पोस्ट ऑफिस के लेटर-बॉक्स को कौन देखता है म्हारी आंखें उस पर न टिकती रही होंगी। वह आंख से ओझल होता रहा होगा। था वहीं, लेकिन तुम्हें तब तक नहीं दिखा था, जब तक तुम्हारे भीतर कोई आकांक्षा न थी, जो संबंध बना दे। आज तुम्हें चिट्ठी डालनी थी, अचानक..।
उपवास करके देखो और फिर जाओ एम जी रोड पर। फिर तुम्हें कुछ और न दिखाई पड़ेगा। फिर रैस्तरा, होटल, कॉफी-हाउस, बस इसी तरह की चीजें दिखाई पड़ेगी। और अचानक तुम्हारी नाक ऐसी प्रगाढ़ हो जाएगी कि हर तरह की सुगंधे आने लगेंगी, हर तरह के आकर्षण बुलावे देने लगेंगे। तुम्हारे उपवास से तुम किसी और ही रास्ते से गुजरते हो जिससे तुम कभी नहीं गुजरे थे। कहने मात्र को एम जी. रोड है। जब तुम भरे पेट से गुजरते हो, तब बात और है। जब तुम कपड़े खरीदने गुजरते हो, तब बात और है।
जो पुरुष अपनी पत्नी से तृप्त है वह भी गुजरता है, तो बात और। जो अपनी पत्नी से तृप्त नहीं है, वह भी उसी रास्ते से गुजरता है, लेकिन तब रास्ता और। क्योंकि दोनों के देखने का ढंग और, दोनों की आकांक्षा और।
तुम जो चाहते हो, उससे तुम्हारा जगत निर्मित होता है। हम सब एक ही जगत में नहीं रहते। हम सब अपने -अपने जगत में रहते हैं। यहां जितने मनुष्य हैं, जितने मन हैं, उतने जगत हैं। उसी जगत की बात हो रही है, तुम खयाल रखना। नहीं तो अक्सर भ्रांति होती है। पूरब के इन मनीषियों