________________
से तय किया हुआ है, हमारे हाथ में क्या है? तो वही करवा रहा है, सो हो रहा है।
फ्रायड कहता है कि बचपन में मां-बाप ने जो संस्कार डाले, तुम्हारे मन पर जो संस्कारित हो गया, उसका ही परिणाम है।
लेकिन ये सब तरकीबें हैं एक बात से बचने की कि यह मेरा स्वभाव है, यह जो भी हो रहा है मेरा स्वभाव है। इस महंत सत्य से बचने की सब तरकीबें हैं, ईजादें हैं, आविष्कार हैं कि कैसे हम टाल दें। और मैं उसी को हिम्मतवर कहता हूं वही है साहसी जो जनक की भांति कह दे कि अपनी ही प्रकृत वायु से इधर-उधर डोलती लहरें हैं।
भ्रमति स्वांतवातेन!
मन असहिष्णुता न अस्ति मुझे कोई असहिष्णुता नहीं है। मैं इसमें कुछ फर्क नहीं करना चाहता गुरुदेव! अष्टावक्र से उन्होंने कहा, जो है, है, मैं राजी हूं। मेरे राजीपन में जरा भी ना-नुच नहीं है।
इससे महाक्रांति का उदय होता है। इस सत्य को जिस दिन तुम देख पाओगे, तुम पाओगे बिना कुछ किए सब हो जाता है।
'मुझ अंतहीन महासमुद्र में जगतरूपी लहर स्वभाव से उदय हो, चाहे मिटे..।' सुनो!
'मुझ अंतहीन महासमुद्र में जगतरूपी लहर, स्वभाव से उदय हो चाहे मिटे, मेरी न वृद्धि है और न हानि है।'
न यहां कुछ खोता, न यहां कुछ कमाया जाता। फिर क्या फिक्र? न तो क्रोध में कुछ खोता है और न करुणा में कुछ कमाया जाता है। बड़ी अदभुत बात है! यह सब सपना है।
मयि अनंत महाम्भोधौ जगदवीचि स्वभावत:।। स्वभाविक रूप से उठ रही हैं जगत की लहरें। छोटी-बड़ी, अनेक- अनेक रूप, अच्छी-बुरी, शोरगुल उपद्रव करती, शांत-स्ब तरह की लहरें उठ रही हैं।
उदेत वास्तमायात न मे वद्धिर्न न क्षति:। न तो वृद्धि होती, न क्षति होती। कुछ भी मेरा तो कुछ आता-जाता नहीं।
रात तुमने सपना देखा, चोर हो गए कि साधु हो गए सुबह उठ कर तो दोनों सपने बराबर हो जाते हैं। सुबह तुम यह तो नहीं कहते कि रात हम साधु हो गए थे सपने में। तो तुम कुछ गौरव तो अनुभव नहीं करते। और न सुबह तुम कोई अगौरव और ग्लानि अनुभव करते हो कि चोर हो गए थे कि हत्यारे हो गए थे-सपना तो सपना है। सपना तो टूटा कि गया।
तो जनक कहते हैं कि ये चाहे बनें चाहे मिटें! आप मुझसे कहते हैं कि जगत से मुक्त हो जाऊं? आप बात क्या कर रहे हैं? यह जो हो रहा है, होता रहेगा, होता रहा है, होता रहे, मुझे लेना देना क्या है? न तो ऐसा करने से मुझे कुछ लाभ होता, न वैसा करने से मुझे कुछ हानि होती है। यहां चुनाव करने को ही कुछ नहीं है। यहां लाभ-हानि बराबर है।