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स्त्री और पुरुष के बीच जो विपरीतता है, वही प्रेम है। अगर विपरीतता समाप्त हो जाए, प्रेम विदा हो जाए । संसार और मोक्ष के बीच जो विकल्प है, वही स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता का मतलब यह है कि अगर मैं चाहूं तो मैं नरक की आखिरी परत तक जा सकता। कोई मुझे रोकने वाला नहीं । और अगर मैं चाहूं तो स्वर्ग की सब ऊंचाइयां मेरी हैं, मुझे कोई रोकने वाला नहीं। यह मेरा निर्णय है। और ये दोनों मेरे स्वभाव हैं। नरक मेरी ही निम्नतम दशा है, स्वर्ग मेरी ही उच्चतम दशा है। समझो कि नरक मेरे पैर हैं और स्वर्ग मेरा सिर है। मगर दोनों मेरे हैं और भीतर मेरा खून दोनों को जोड़े हुए है।
भ्रमति स्वान्तवातेन..
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अपनी ही हवा है, उसी से भ्रम पैदा हो रहा है। डावांडोल होती नौका |
'मुझ अंतहीन महासमुद्र में विश्वरूपी नाव अपनी ही प्रकृत वायु से इधर-उधर डोलती है। मुझे असहिष्णुता नहीं है ।
कहते हैं, अब मैं चुनाव नहीं करना चाहता । मैं यह नहीं चाहता कि नाव न डोले, क्योंकि वह मेरा आकर्षण कि नाव न डोले, मेरे मन का तनाव बनेगा ।
जब भी तुमने कुछ चाहा, जब भी तुमने कुछ चाह की तनाव पैदा हुआ। जब भी तुमने स्वीकार किया, जो है, तभी तनाव खो गया। अगर तुमने चाहा कि अज्ञान हटे और ज्ञान आए - उपद्रव शुरू हुआ। अगर तुमने चाहा कि वासना मिटे, निर्वासना आए - पडे तुम झंझट में! अगर तुमने चाहा संसार से मुक्त हो, मोक्ष बने मेरा साम्राज्य - अब तुमने एक तरह की परेशानी मोल ली, जो तुम्हें चैन न देगी। बात कह रहे हैं। जनक कह रहे हैं: संसार और मोक्ष दोनों ही मुझमें उठती तरंगें हैं। अब मैं चुनाव नहीं करता, जो तरंग उठती है, देखता रहता हूं । यह भी मेरी है। यह भी स्वाभाविक
बड़ी
है।
देखा इस स्वीकार - भाव को ! फिर कैसी असहिष्णुता ? फिर तो सहिष्णुता बिलकुल ही नैसर्गिक होगी। जो हो रहा है, हो रहा है। बड़ी कठिन है यह बात स्वीकार करनी, क्योंकि अहंकार के बड़े विपरीत
है।
कोई मेरे पास आया और कहने लगा, मैं महाक्रोधी हूं, मुझे क्रोध से मुक्त होना है। मैंने उससे पूछा कि तू महाक्रोधी क्यों है? इसको थोड़ा समझ । अहंकार के कारण होगा।
उसने कहा, आप ठीक कहते हैं। और मैंने कहा, उसी अहंकार के कारण तू कहता है कि मुझे क्रोध से बाहर होना है, क्योंकि क्रोध के कारण अहंकार को चोट लगती है। तो क्रोध के पीछे भी अहंकार है और अक्रोधी बनने के पीछे भी अहंकार है । जब भी तू क्रोध करता है तो तेरी प्रतिमा नीचे गिरती है, तेरे अहंकार को भाता नहीं है। तू चाहता है कि लोग तुझे संत की तरह पूर्जे, चरण छुए तेरे । तेरे क्रोध के कारण वह सब गड़बड़ हो जाता है। तेरे कोई चरण नहीं छूता । चरण कौन तेरे छुए ? नमस्कार कौन करे तुझे? तो अब तू चाहता है कि क्रोध से कैसे छूटें। लेकिन मूल जड़ तो वही की वही है। जिसके कारण तू क्रोध करता था - जिस अहंकार के कारण - वही अहंकार अब संत- महात्मा