________________
तुम्हारे पास दस हजार रुपये हैं, तुम दस लाख चाहते थे, इसलिए मन अशांत है। जितना है उससे तुम तृप्त न थे। जो नहीं है वह तुम मांग रहे थे। 'नहीं' की मांग से अशांति आई। अशांति आती है अभाव से। जो है, उससे अशांति कभी नहीं आती है; जो नहीं है, उसकी मांग से आती है। जो पत्नी तुम्हारी है, उससे सुंदर चाहिए। जो पति तुम्हारा है, उससे ज्यादा यशस्वी चाहिए। जो बेटा तुम्हारा है, उससे ज्यादा बुद्धिमान चाहिए। जैसा मकान है, उससे बड़ा चाहिए। जितनी तुम्हारी प्रतिष्ठा है, उससे गहरी चाहिए। जो पद तुम्हारे पास है, उससे आगे का पद चाहिए। अशांति आती है उसकी मांग से जो तुम्हारे पास नहीं है। फिर, जब तुम अशांत हो गए तो अब तुम एक और नई बात मांगना शुरू करते हो-पुराना जाल तो कायम है और उसी जाल का गणित और फैलता है-अब तुम कहते हो, मुझे शांति चाहिए। अब शांति नहीं है तुम्हारे पास, अब तुम्हें शांति चाहिए। तुम समझे? इसका मतलब हुआ कि अब जाल और भी जटिल हो जाएगा।
जो आदमी साधारणत: अशांत है और शांति की झंझट में नहीं पड़ा है, वह उस आदमी से ज्यादा शांत होता है जो शांत होना चाहने की झंझट में पड़ गया है। यह एक और उपद्रव हुआ। अशांत तो तुम थे ही, तर्क था कि जो नहीं है वह होना चाहिए; अब शांति नहीं है, शांति होना चाहिए। एक और नई झंझट शुरू हुई।
जो तथाकथित धार्मिक लोग हैं, उनसे ज्यादा अशांत व्यक्ति तुम दूसरे न पाओगे। सांसारिक व्यक्ति उतने अशांत नहीं हैं। मंदिरों में, मस्जिदों में झुके लोग, पूजागृहों में बैठे लोग, तपश्चर्या उपवास करते लोग तुम्हें जितने अशांत दिखाई पड़ेंगे उतने तुम्हें साधारण लोग, होटलों में बैठे, चाय पीते, अखबार पढ़ते, उतने अशांत न दिखाई पड़ेंगे। कम से कम उनके पास एक ही अशांति है-वे संसार में कुछ पाना चाहते हैं। धार्मिक व्यक्ति के पास दोहरी अशांति है-वह परलोक में भी कुछ पाग चाहता है। न केवल परलोक में कुछ पाना चाहता है, यहां भी शांति पाना चाहता है, आनंद पाना चाहता है, ध्यान पाना चाहता है। और सारा जाल इतना ही है कि तुम अगर कुछ पाना चाहते हो तो तुम और अशांत होते जाओगे।
___ मैं कहता हूं-जब कोई शांति की खोज में आता कि तुम अशांति को स्वीकार कर लो। उसे समझाता हूं। कभी-कभी उसकी समझ में भी आ जाता है। यह बात कठिन है : 'अशांति को स्वीकार कर लो! तो फिर शांत कैसे होंगे?' तुम्हारी बात भी मेरी समझ में आती है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं. जब भी कोई शांत हुआ है, अशांति को स्वीकार करके हुआ है। सुन कर मुझे समझ कर मुझे कोई राजी हो जाता है कि ' अच्छा, तो स्वीकार कर लेते हैं; फिर शांत हो जाएंगे? स्वीकार कर लेते हैं, फिर शांत हो जाएंगे? कब तक शांत होंगे? चलो स्वीकार कर लेते हैं। तो मैं उनसे कहता हूं यह तुमने स्वीकार किया ही नहीं। अभी भी तुम्हारी मांग तो कायम है कि शांत होना है। स्वीकार करने का अर्थ है. जैसा है, वैसा है; अन्यथा हो नहीं सकता। जैसा है, वैसा ही होगा। जैसा हुआ है, वैसा ही होता रहा
जब तुम इस भांति स्वीकार कर लेते हो तो पीछे यह प्रश्न खड़ा नहीं होता कि स्वीकार करने