________________
नहीं। शांत हूं ही-ऐसे अनुभव में, ऐसे साक्षात्कार में उतर जाना।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अपने पड़ोसी से कहता था : घोर मुसीबत में इतना याद रखना चाहिए- आधे लोगों को तुम्हारी मुसीबत सुनने में रस नहीं और बाकी आधे लोगों का खयाल है कि तुम इसी लायक हो ।
अब वह बड़े ज्ञान की बात कह रहे हैं। अज्ञानियों से भी तुम ज्ञान के बड़े वचन सुनोगे, हालांकि उनके कारण हमेशा गलत होंगे। वे बातें तो सही करेंगे, लेकिन कारण गलत होंगे। क्रोध के विपरीत नहीं है शांति कि तुम साध लो। जहां शांति है वहां क्रोध नहीं है, यह सच है। शांति क्रोध का अभाव है, विपरीत नहीं। लोग यही सोचते हैं कि शांति क्रोध का वैपरीत्य है, विपरीत स्थिति है; तो क्रोध को हटाओ तो शांति होगी। हटाने से शांति न होगी । हटाने में तुम और अशांत हो जाओगे । हटाने में इतना ही हो सकता है कि तुम शांति का एक कलेवर ओढ़ लो, एक वस्त्राभरण, और भीतर सब छिप जाए, जहर की तरह, मवाद की तरह। वह कभी फूटेगा ।
कामवासना के विपरीत नहीं है ब्रह्मचर्य। जहां ब्रह्मचर्य है, वहां कामवासना नहीं है - यह सच है। इति ज्ञानं! पर कामवासना के विपरीत नहीं है ब्रह्मचर्य । कामवासना को रोक रोक कर, सम्हालसम्हाल कर कोई ब्रह्मचर्य नहीं होता। कोई जान लेता है कि मैं ब्रह्म हूं उसकी चर्या में ब्रह्म उतर आता है। ब्रह्मचर्य यानी ब्रह्म जैसी चर्या । उसका कामवासना से कोई भी संबंध नहीं है। इस शब्द को तो देखो! इतना अदभुत शब्द है ब्रह्मचर्य। उसको तुम्हारे तथाकथित महात्माओं ने बुरी तरह भ्रष्ट किया। ब्रह्मचर्य का वे मतलब करते हैं : कामवासना से मुक्त हो जाना । ब्रह्मचर्य में कहीं कामवासना की बात ही नहीं है। ब्रह्म जैसी चर्या! ईश्वरीय व्यवहार!
मगर ब्रह्म जैसी चर्या तो तभी होगी जब तुम्हें ब्रह्म का भीतर अनुभव हो। जिसको ब्रह्म का अनुभव हो गया, उसकी चर्या में ब्रह्मचर्य। वह कहेगा, सागर में लहरें हैं, वह भी मेरी । वह कहेगा, सब कुछ मेरा है और सब कुछ का मैं हूं । न यहां कुछ छोड़ने को है न यहां कुछ पकड़ने को । संसार ही मोक्ष है फिर फिर जाना कहां है?
झेन फकीर रिझाई का बड़ा प्रसिद्ध वचन है : संसार निर्वाण है। सैकड़ों वर्षों से अनेकों लोगों को बेचैन करता रहा रिझाई का यह सूत्र । संसार निर्वाण है? यह तो बात बड़ी अजीब-सी है । संसार, और निर्वाण? यह तो ऐसे हुआ कि जैसे कोई कहे भोग त्याग है। मगर बात सही है।
रिंझाई यही कह रहा है. न कुछ छूटने को है, न कुछ छोड़ने को है, न कुछ पाने को है - ऐसा जिसने जान लिया वह निर्वाण की अवस्था में आ गया। इति ज्ञान! फिर वह संसार में ही रहेगा, भागेगा कहा? जाएगा कहा ? जाना कहां है? जो है वह उसे स्वीकार है। लहर है तो लहर स्वीकार है; लहर खो गई तो लहर का खो जाना स्वीकार है। उसकी स्वीकृति परम है। उसकी अवस्था तथाता की है। जो है, उसे स्वीकार है। अन्यथा की वह मांग नहीं करता; अन्यथा हो भी नहीं सकता।
जब तक तुम चाहते हो अन्यथा हो जाए, कुछ और हो जाए, जैसा है उससे भिन्न हो जाए-तब तक तुम बेचैन रहोगे। जिस दिन तुमने कहा- जैसा है वैसा है, और जैसा है वैसा ही रहेगा, और जैसा