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किसी और का है! तुम्हीं जमा कर आए हो घर से। उसको व्यवस्थित कर लो!
मैंने देखा कि.. मैं देखता रहता कि क्या रहे हैं वे। फिर चले बाथरूम! क्यों? अभी तुम गये थे! न मालूम क्या मामला है? खिड़की खोलते, बंद करते!
आदमी को कुछ उलझन चाहिए। उलझा रहे, व्यस्त रहे तो ठीक मालूम पड़ता है। उलझा रहे, व्यस्त रहे तो पुरानी आदत के अनुकूल सब चलता रहता है। खाली छूट जाए शून्य पकड़ने लगता है। वही शून्य ध्यान है। खाली छूट जाए, मोक्ष उतरने लगता है।
___ मोक्ष का तुम्हें पता ही नहीं। तुम दरवाजा बंद कर कर देते हो। जब भी मोक्ष कहता है, जरा भीतर आने दो, तुम फिर कुछ करने में लग जाते हो।
मोक्ष तभी आयेगा, जब तुम ऐसी घड़ी में होओगे जब कुछ भी नहीं कर रहे। तब अचानक उतर आता है। वह परम आशीष बरस जाता है। एकदम प्रसाद सब तरफ खड़ा हो जाता है। क्योंकि मोक्ष तो प्रत्येक का स्वभाव है, तुम्हारे करने पर निर्भर नहीं।
लेकिन गुरु देखता है अगर कोई वासना करने की थोड़ी-बहुत शेष रह गई उसको भी निपटा लो। 'तुझ से संसार उत्पन्न होता है; जैसे समुद्र से बुलबुला। इस प्रकार आत्मा को एक जान और ऐसा जान कर मोक्ष को प्राप्त हो। '
इति ज्ञात्वैकमात्मानमेवमेव लय व्रज। वे कहते हैं, तू एक काम कर ले। इतना जान ले कि आत्मा सर्व के साथ एक है।
अब यह ज्ञान की यात्रा शुरू करवा रहे हैं। ऐसे तो कई नासमझ बैठे हैं, जो दोहराते रहते हैं बैठे-बैठे कि मैं और ब्रह्म एक, मैं और ब्रह्म एक। दोहराते रहो जन्मों तक, कुछ भी न होगा। तोते बन जाओगे। दोहराते-दोहराते ऐसी भ्रांति भी पैदा हो सकती है कि शायद मैं और ब्रह्म एक। मगर इस भ्रांति का नाम ज्ञान नहीं है।
'दृश्यमान जगत प्रत्यक्ष होता हुआ भी रज्जु सर्प की भांति तुझ शुद्ध के लिए नहीं है। इसलिए तू निर्वाण को प्राप्त हो। '
यह सब भांति है। यह सब भ्रांति से जाग! निर्वाण को प्राप्त हो! यह सब सपना है; जैसे रस्सी में सांप दिखाई पड़ जाए।
व्यक्तम् विश्वम् प्रत्यक्षम् अपि अवस्तुत्वात्। यदयपि दिखाई पड़ता है यह विश्व, फिर भी नहीं है। ऐसा ही दिखाई पड़ता, जैसे रस्सी में सांप।
अमले त्वयि रन्तुसर्पः इव न अस्ति तुझ शुद्ध में, तुझ बुद्ध में, कोई भी मल, कोई भी दोष नहीं है। अगर दोष दिखाई भी पड़ता हो तो वह भी रन्तु में सर्पवत है।
एवम् एव लयम् व्रज | ऐसा जान कर तू लय को प्राप्त हो जा! तू निर्वाण को प्राप्त हो जा!